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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


वह अब इस घर में एक पल के लिए नहीं रहेगी। और इस घर की चौखट लांघने के पहले एक चुल्लू पानी तक मुँह में नहीं डालेगी। अपने इस पुराने संकल्प को जोर-जोर से दोहराते हुए मौसी ने बक्से के अन्दर महीनों से आंखें मूँद लेने वाली नामावली और मटक! चादर निकाल लिया। इसके बाद पुरानी भारी साड़ी और कम्बल को बड़ी बेरहमी से झूटके के साथ बाहर निकाला और फिर उन्हें तहाने लगी।

''बहुत हुआ बाप रे बाप...अब और नहों....बहन की बेटी के घर आकर बड़ा सुख पाया रे...। मरते दम तक याद रहेगा।. जब तक मौत गले पर सवार न हो...कोई अपनी सौतेली माँ की बेटी या उसके भतार के घर अपनी जान देने नहीं जाती। मुझे पागल कुत्ते ने काटा था जो मैं यहाँ आयी थी....ठीक ही हुआ....अच्छी सजा मिली। अब मेरी जान छोड़ो बाबा...यहीं से निकल पाऊँ तो जान बचे...।''

उसकी बातों का यह नमूना भर था।

कई रूपों में और कई तो में अन्ना मौसी अपने स्वर और तेवर को बदल-बदलकर बकती-झकती रही। उसकी बातों को सुनकर यह सहज ही समझा जा सकता था कि इस घर के लौगों ने अपने मतलब के लिए मौसी को छेक रखा है। इसीलिए मौसी आज यहाँ से जाने को उतावली हो उठी हैं।

लेकिन इस घटना के ठीक दो दिन बाट ही जो स्थिति आने वाली होगी-उसे देखकर यही जान पड़ेगा कि मामला कुछ और ही रहा होगा।

इस चटखे हुए रंग वाले टिन के बक्से में रखी चीजों कौ सहेजना मौसी की दिनचर्या का अभिन्न और अपरिहार्य अंग है। लेकिन उसने अब भी उापने दिमाग को पूरी तरह खराब होने नहीं दिया है और तभी तो वह बहन-बेटी के घर-संसार को

उजड़ता हुआ देखकर आनन-फानन जाना नहीं चाहती! अब क्या करे बेचारा? अनपमान का घूँट पीकर रह जाना पड़ता है उसे और इसी घर का दाना-पानी स्वीकर करना होता है उसे...और सन्स मारकर...मन मसोसकर उस दिन रह जाना भी पड़ता है।

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