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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


ठीक इसी समय...कबूतर की कोलखी जैसे सँकरे, बुसे और अँधेरे कमरे मैं एक मरियल-सी चारपाई पर औंधा पड़ा अविनाश, चिट्ठी लिख रहा था। चार दिनों के विरह में ही इतना लम्बा पत्र? लेकिन इसके सिवा चारा भी क्या था? वह कैसे अपने मन की बेचैनी प्रकट करे! हालाँकि उसे पता था कि अगले ही दिन उसकी घरवाली आने वाली है। उसने लिखा :

''प्रिय पद्मा,
मेरा सारा कुछ लुट गया। मैंने पटना में जिस नौकरी के लिए आवेदन दिया था-उसे में इस जीवन में पा भी सकूँगा, इसकी उम्मीद नहीं।....मैंने सोचा था अगर मुझे यह नौकरी मिल गयी तो हम जीवन का बाकी हिस्सा किसी तरह चैन से बिता सकेंगे। लेकिन विधाता ने हमारे साथ बड़ा भारी मजाक किया है। मैंने सब कुछ...घर-द्वार माल-असबाव बेच-बाचकर सिक्यूरिटी के लिए दो हजार की जो रकम जमा की थी-वह सब लुट गया। तुम तो जानती ही थी कि चोर या उचकके के डर से मैंने उन रुपयों को बक्से में नहीं....बल्कि रजाई के अन्दर एक छोटी-सी थैली में छुपाकर रखा था। लेकिन चोर की नजर वहां भी कैसे पड़ गयी-यह सचमुच हैरानी की बात है।

मुझे यही जान पड़ता है कि यह किसी ऐसे आदमी का काम है जो इस बारे में जानता था। अब मैं किससे क्या कहूँ? मैं तो एकदम तबाह ही हो गया। मुझे आगे के लिए भी कार्ड उम्मीद नहीं रही। मैं तो यही समझ लूँगा कि मैंने बड़ा भारी गुनाह किया है। मुझे बार-बार इस बात का पछतावा होता रहता है कि मैं तुम्हें भेजने को राजी कैसे हो गया। घर की लक्ष्मी घर में रहती तो यह दुर्दशा न होती। खैर, जो हो गया हो गया। अब चिट्ठी पढ़ना खत्म होते ही आने की तैयारी करना। मैं तुम्हें लिवा लाने की स्थिति मैं नहीं....और अब मैं तो तुम्हैं अपना मुँह भी नहीं दिखा पाऊँगा शायद।

बेआसरा

उँगलियों में घूम रही जप-माला को एक तरफ फेंककर अन्नपूर्णा मौसी चटख गये रंग वाले टिन के बक्से को सहेजने बैठ गयी। वह चुप्पी साधे अपना कोई काम करने वाली नहीं। उनकी जुबान भी साथ-साथ कैंची की तरह चलती रहती है...पूरे दम-खम से।

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