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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


ऐसा कह देने से ही तो जरूरत नहीं मिट जाती।...तो भी एक नन्ही-सी जान को उसने यह जता दिया था।...

ऐसी ही परिस्थितियों के बीच एक और दृश्य उसे याद आता है...यही तो वह घर और दालान था...लेकिन वे दोनों जैसे कोई और थीं।...ताँबई रंग, दुबले-पतले हाथ-पाँव, फटी-चिटी फ्रॉक वाली वह लड़की अब नये यौवनागम के साथ सुडौल और स्वस्थ युवती में परिवर्तित हो गयी थी...एक अदद साड़ी में अब उसकी लाज नहीं ढँक पाती...काटती ठण्ड से बच पाने की अपेक्षा कहीं अधिक कष्टकर है छोटी बहर और अरज की साड़ी से अपनी लाज ढँक पाने की चेष्टा। लेकिन तो भी सिमटते-सकुचाते वह घर-संसार का सारा काम करती है। अपनी बीमार विधवा माँ पर उसकी प्यार भरी देखभाल का कोई अन्त नहीं है। लेकिन माँ है कि उसे भार हो जाने के बावजूद लोरी सुनाती रहती है। बिटिया माँ की ओर देखकर हँसती है और झिड़कती है, ''क्यों...तुम अकेली क्यों नहीं जा सकती...मैं भी तो सुनूँ? डर लगता है? क्या तुम्हें कोई भूत भकोस लेगा?''

माँ उसे किस तरह समझाए कि भूत-प्रेत से नहीं उसे अपनी नवयौवना बेटी से डर लगने लगा है। एक असहाय विधवा की बेटी की उमर का तेजी से बढ़ना ही अपने आप में एक अपराध है और ऊपर से यह रूप। बेटी अनमने ढंग से चलती-फिरती-डोलती है और माँ फूल मन से उसे हेरा करती है। हां, उसका पद्मा नाम रखा जाना एकदम सार्थक हुआ है। दोनों पाँव कमल के जुड़वाँ फूल की तरह खिले हैं। लेकिन उसके शरीर की बाढ़ इतनी क्यों है भला? अपमान ओर दुतकार से मिले अन्न का ऐसा जोर और ज्वार?

जदु लाहिड़ी की पत्नी अब चाहे गुस्सा करे या न करे। उसकी दोनों नातिने मलेरिया की चपेट में फँसकर अस्थिपंजर जैसी दीख पड़ती हैं...काली चमगादड जैसी...चमड़े से मढ़ा। और इधर यह लड़की पद्मा...चौदह साल को उम्र में ही ऐसी निखर गयी है कि उस पर आँख नहीं ठहरती। सुनने मैं भले ही उसे बुरा लगे तो लगे...लेकिन बुढ़िया उसे उलाहना देती हुई कहती, ''अरी ओ पद्मा...सुन रही है न...भात थोड़ा कम ही भकोसा कर...पराया माल समझकर सब कुछ डकार मत जाया कर। दिनों-दिन हाथिन की तरह फैलती-डोलती जा रही है और यह सब देख-देखकर ही तेरी माँ की देह का सारा खून पानी होता जा रहा है...।''

तब अपमान का इतना सारा जहर पीकर भी, पद्मा ने हँसते हुए कहा था, ''माँ की देह में अब खून है भी कहीं, नानी...? सब पानी हो गया है।" लेकिन इतना सुगना था कि बुढ़िया नानी ने पद्मा के बड़बोलेपन और शेखी की दुहाई देते हुए सारा आसमान ही सर पर उठा लिया था। अगर वह ऐसा न करती तो लोग सारा दोष लाहिड़ी की घरवाली के ही सिर मढ़ देते।

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