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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


...तभी वह बार-बार अपनी बिटिया को बिछौने पर सो जाने को कहती है। लेकिन अँधेरे और बुझे कमरे की खाली चारपाई पर बिछे बासी बिछौने की याद से ही बेचारी के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उसके चीकट तकिये पर पता नहीं कौन, पानी उँड़ेल जाता है।...वह माँ के नरम-गरम कलेजे में दुबककर न सोए तो फिर और कहां जाए? यही नहीं, दुनिया भर के तमाम भूत-प्रेत, दैत्य-दानव क्या उसके इर्द-गिर्द झुण्ड बाँधे...अपने अंजर-पंजर छितराये और मुँह बाये इस कमरे की पलस्तर उधड़ी दीवारों से सटे-घुप्प अँधेरे कोने में खड़े नहीं?

जदु लाहिड़ी की बीमार पत्नी अपने आप उठकर बैठ नहीं सकती। लेकिन दुनिया भर की खबरें उसके कानों तक कैसे पहुँच जाती हैं, यह सचमुच हैरानी की बात है।...दीये का लोभ दिखाकर और आँचल की ओट में पद्मा को बिछावन तक ले जाने के बीच भी लाहिड़ी की पत्नी की उखड़ी-उखड़ी लेकिन खीजभरी आवाज कानों में पड़ती रहती...''अरी ओ नवाब की शहजादी...बेटी को लाड़-दुलारकर इतना सर पर मत चढाओ...दीये का तेल कोई हराम का नहीं आता।....दिमाग में कोई बात टिक पाती तो मेरी बक-झक भी कम होती। और दो-दो लोगों के खाने-पीने...कपड़े-लत्ते का जुगाड़ कोई बच्चों का खेल नहीं। पता नहीं, घर में ऐसा कितना काम है कि माँ-बेटी...दोनों की दोनों...दिन-दोपहर-साँझ-रात डोलती फिरती हैं...आखिर करती क्या रहती हो...? अपने आराम के लिए दिन का काम रात में और रात का काम दिन में...है न! बाम्हन की बेटी हो...कभी फुरसत मिले तो बैठकर हिसाब लगाना कि इन महीनों में कितना किरासन तेल फूँका गया?...हां...दूसरे का पैसा है तो कलेजे में पीर कैसी? वो कहावत है न...'मोल-तोल किस बात की जब मिले मुफत में माल।' तुम दोनों का बस यही हाल है।...और मैं भी ऐसी दुर्गत में पड़ी हूँ कि तुम जैसी बेईमान को पालना पड़ रहा है...।''

जदु लाहिड़ी की पत्नी बोलना शुरू करती है तो थमती नहीं।

दीये की लौ तब तक दम तोड़ चुकी है।...भूत और प्रेत का भय और चाहे किसी को जितना भी सताए.. लाहिड़ी की घरवाली का इससे कुछ आता-जाता नहीं।...बारिश के दिनों में पानी में छपछप करते और घुटने तक कीचड़ में लिथडे, माँ के साथ-साथ पोखर के घाट तक जाने और फिर वापस लौटने की यादें सुख और दुख दौनों से भरी हैं। कभी-कभी तो इसमें बड़ा मजा आता। लेकिन जब माँ की खाँसी बढ़ जाती तो फिर बड़ी परेशानी होती। उस दिन जी मैं यही आता कि माँ ओर बेटी रात और दिन चीथड़े पर लेटकर ही बिता देंगी। भात खाने की भी क्या जरूरत है? दो-चार दिन नहीं खाएँगे तो क्या हो जाएगा? लेकिन जरूरत नहीं है...

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