कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
लेकिन
बात लाहिड़ी की घरवाली की ही नहीं थी। पास-पड़ोस के सभी लोगों को पद्मा के
बारे में अपनी राय दिये बिना चैन न था। जैसे यही उनका मुख-रोचक था...
-''पद्मा का रूप आँखों को
सालता रहता है...उसकी चाल-ढाल से चिढ़ होती है। उसके उभारों को देखकर देह
में आग-सी लग जाती है...''
-''पद्मा का चाल-चलन ठीक
नहीं है...और उसका बात-व्यवहार...खैर, जाने भी दो...यह वह पद्मा नहीं है
जो... वह तो कब की मर चुकी...।''
जितने मुँह उतनी बातें।
लेकिन 'पद्मलता' को पा
लेने में किसी को आपत्ति नहीं है।
जदु
लाहिड़ी की घरवाली, मोतियाबिन्द वाली आँखों के सामने से धुँधला-सा पर्दा
हटाती और जैसे चीख पड़ती, ''अरे यह कोई छोरी-वोरी नहीं है, साक्षात्
लक्ष्मी की छाया है...बचपन से ही तो देख रही हूँ...। इसके रूप-गुण...कोई
ओर-छोर नहीं। नसीब का कैसा खेल है कि इसकी माँ ने पहले ही आंखें मूँद लीं।
अरे तेरी माँ नहीं रही...लेकिन हम लोग तो नहीं मर गये...अरे साल-छह महीने
में आती रहना! एकदम बिसरा ही मत देना। आखिर मेरी कमली और विमली से तू कोई
अलग थोड़े ही है...।''
उसे पता था कि वह डन
दोनों से बहुत अलग है। कमला और विमला की तरह पद्मा नानी को 'कलमुँही' नहीं
कहती।...?
और उसी पद्मलता ने बिस्तर
पर पड़ी बुढ़िया नानी को तीरथ पर जाने के लिए अभी-अभी तीन सौ रुपये दिये
हैं-नकद।
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