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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


अपनी माँ के लिए पद्मलता को बहुत दुख नहीं होता। उसकी याद आने पर उसकी स्मृतियों के समुद्र में जैसे ज्वार-भाटा-सा उठने लगता है। हां, इसे याद है लाहिड़ी परिवार के इसी दालान में, सर्दी की ठिठुरती रात में, हड्डियों में सुइयाँ चुभोती बर्फीली हवा झेलती एक दुबली-पतली और वीमार विधवा लगातार खाँसती चली जा रही है। यह मुई खाँसी बारह महीने जिसके पीछे लगी रहती है। लट्ठे की मोटी धोक का आँचल बार-बार अपने सीने पर खींचकर ठण्ड से बचने की असफल-सी कोशिश करती...और फिर इसके साथ ही घर-संसार के अगले दिन के तमाम कामों को सहेजने-समेटने लगती है। लेकिन इन ढेर सारे कामों के बीच एक चीज जो लगातार उसके साथ लगी रहती है, वह है उसकी खाँसी। उसकी खाँसी की ठन-ठन अब भी इस दालान के महराबों और छज्जों से चिपकी हुई है और अब भी जब रात गहरा जाती है तो ऐसा जान पड़ता है कि उसके खाँसने की आवाज सुनाई पड़ने लगेगी।

उसी औरत के पीछे-पीछे एक छोटी-सी लड़की चक्कर काटती रहती है। उसकी देह पर भी कोई गर्म कपड़ा नहीं है। वह जटु लाहिड़ी की नातिनों-पोतिनो में से किसी की उतरन पहने है जिसमें ढर सारे पैबन्द लगे हैं। चीथड़ों और कतरनों से भरे मोटे कपडे का घाघरा पहनकर वह डोल रही है।

अपनी माँ से अपने सीने को सटाकर थोड़ी-बहुत गर्मी महसूस की जा सकती है लेकिन गर्दन को रेतने वाली कटार की तेज धार को झेलते-झेलते ऐसा भी होता है कि वह इस तरफ से उदासीन ही जाती है।...तब शायद सर्दी का अहसास नहीं रहता। शरीर की दो-एक जगहों पर चिनचिनाती चिकोटी काटे जाते रहने के अहसास के अलावा। परेशानी होती है इन दोनों हाथों को लेकर। बरफ के टुकड़ों की तरह छोटे-छोटे हाथों से माँ के कामों में, जहाँ तक सम्भव हो सकता है, हाथ बँटाती है...पानी में काम करते हुए जब उँगलियाँ अचानक अकड़ जाती हैं...ऐसे मौके पर उसकी माँ का काम दुगुना हो जाता है। तब लालटेन के माथे पर आँचल रखकर वह बिटिया के छोटे-छोटे हाथ-पाँव सेंक देती है...उसे अपनी गोद में खींचकर उससे बकती-झकती है। उसे मीठी झिड़की पिलाती हुई कहती है, ''तू इस काटती ठण्ड में क्यों दौड़ती-भागती रहती है, बिटिया! देख अभी कितना सारा काम बाकी रह गया है।... मैं यहाँ खाना पकाने के लिए रखी गयी हूँ रे!''...लेकिन खाना पकाने का काम खतम हो जाने पर भी उसे छुट्टी नहीं मिलती है। उसे पता है कि किसी अबोध बालिका के लिए दो मुट्ठी भात जुटाना कितना मुश्किल है! भले ही वह छोटे-मोटे कामों में उसकी सहायता कर दिया करे।

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