कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
जदु
लाहिड़ी के गुजर जाने के बाद, परिवार के लोगों के बीच बोलचाल तक बन्द हो
गयी थी। पद्मलता के आने पर उनका मन-मुटाव दूर हुआ और प्रेम के मीठे बोल
फूटे।
जब
लोग उठने को हुए तो प्रणामी में मिले रुपये को आँचल में बाँधते सत्यवाला
ने अपने स्वर में शहद घोलकर और गद्गद कण्ठ से पद्मलता से अनुरधि किया,
''कल मेरे यहाँ आकर भी, बस कहने के लिए ही सही मछली-भात खा जाना पद्मा
रानी! मैं कोई बहाना नहीं सुनूँगी। हां!''
''लेकिन
रायबाड़ी की ताई तो मुझे पहले से ही कह गयी हैं बुआ!'' पद्मलता का उत्तर भी
विनय की चाशनी में लिपटा हुआ था, ''अगर वहीं नहीं जा पायी तो बुरा नहीं
मान जाएँगे? तुम्हीं बताओ?''
''लो...यह
रायबाड़ी की ताई हमारे बीच कहीं से आ टपकी भला! ओ वही मुकुन्द राय की
भावज...। अब समझी! दावत खिलाने के बहाने खुशामद करने पर उतर आयी है वह।
देखो बेटी, मैं तो खरी बात कहूँगी, हां! बुरा मानो या भला!''
''नहीं
बुआ, यह आप क्या कह रही हैं?'' पद्मा ने आगे कहा, ''मैं कहीं की लाट हूँ
कि कोई मेरी खुशामद करने लगा...नहीं बुआ। ताई बहुत जोर देकर कह गयी हैं
इसीलिए मैं कह रही...''
''हां
बेटी, हम लोग तो बहुत जोर देकर तुम्हें कह भी नहीं सकते? लेकिन यह भी सुन
लो बेटी कि हम बहुत बढ़ा-चढ़ाकर तुम्हें कहें भी क्यों? क्या तुम परायी हो?
लेकिन इन सबसे पहले तुम पर मेरा अधिकार है, यह बता देती हूँ। शायद तुम्हें
याद हो न हो...तेरी माँ मुझ पर कितनी श्रद्धा-भक्ति रखती थी? सत्या
दीदी... सत्या दीदी...की रट लगाये रहती थी। बोलते-बोलते बेहोश हो जाती थी।
सारी आपसी बातों को अब खोलकर या खोदकर कहीं तक बताया-बुझाया जा सकता
है...!''
लेकिन यह सारा बुझौवल
बुझाने की जरूरत भी क्या है?
पद्मलता सोलह साल की उम्र
तक इस गाँव का दाना-पानी पाती रही है। न जाने कितने अपमान भरे घूँट और
अवसाद के क्षण!
वह
भला कैसे भूल सकती है? उसकी माँ सत्यबाला बुआ की जुबान से टपकता जहर कितनी
खामोशी से पीती रही थी-इस 'श्रद्धा-भक्ति' के नाम पर। पद्मा की याददाश्त
क्या इतनी ही कमजोर है कि वह यह सब कुछ भूल जाएगी?
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