कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
प्रश्न
: हमारे देश में नारी की बहुविध समस्या की प्रकृति में तरह-तरह के बदलाव
आते रहे हैं और इसकी एक वजह सामाजिक शक्तियों का रूपान्तरण है। आप इस
बदलाव को किस रूप में लेती हैं?
उत्तर
: सवाल
यह है कि क्या आज का समाज नारी की समस्याओं को पूरी सहानुभूति के साथ
स्वीकार कर रहा है? या इन समस्याओं को अलग से देखा जा रहा है? दरअसल नारी
की मूलभूत समस्याओं एक जैसी हैं और हमेशा से रही हैं सिवा इसके कि इसका
बाहरी रूप और स्वभाव समय के साथ-साथ बदल गया है। 'प्रथम प्रतिश्रुति' की
नायिका सत्यवती को एक खामोश लेकिन प्रभावी ताकत के रूप में देखा जा सकता
है, जो रूढ़िवादी समाज के खिलाफ लड़ती है। इसी तरह सुवर्णलता भी एक
क्रान्तिकारी...कहना चाहिए स्वभाव से ही एक विद्रोहिणी है। हैं तो दोनों
एक ही जमीन और आसमान के नीचे लेकिन समय और सन्दर्भ के चलते दोनों की
अभिव्यक्तियाँ बदल जाती हैं।
प्रश्न
: लेकिन आपकी कहानियों में पात्रों को एक प्रतीक या आदर्श के रूप में
स्थापित करने की कितनी गुंजाडुश रहती है?
उत्तर
:
उपन्यास अपने फलकीय विस्तार में ही बड़ा होता है उसमें सन्दर्भगत प्रकरण और
श्रृंखलाएँ अधिक होती हैं। जहाँ तक पात्रों की बात है-मैं अपने पात्र
साधारण या उन लोगों में से ही चुनती हूँ। बल्कि वे मुझे पकड़ लेते हैं। इन
पात्रों में से भी अधिकतर महिलाएँ होती हैं। एक विश्रृंखल समाज में
स्त्रियाँ ही शोषण की पहली शिकार होती हैं। मैं उनकी दुर्दशा से विचलित हो
उठती हूँ और उनकी वंचना के विरोध में अपनी लेखनी उठा लेती हूँ।
प्रश्न
: नारी की जागरूकता से आपका तात्पर्य क्या है? इसकी परिभाषा और प्रस्ताव
को आप किस रूप में लेना चाहेंगी?
उत्तर
: मुझे
इस बात का समुचित या सन्तोषप्रद उत्तर अब तक नहीं मिला है। जहाँ तक मेरी
अपनी बात है, मैं समझती हूँ एक जागरूक नारी अपने आत्म-गौरव और आत्म-सम्मान
को बनाये रखती है। लेकिन उसे याद रखना होगा कि मुक्ति या स्वतन्त्रता और
स्वच्छन्दता में फर्क है। उसे अपने गौरव और मर्यादा का बोध रखना ही होगा।
आज बीसवीं सदी के आखिरी दौर में भी हम एक पुरुष वर्चस्व वाले समाज में जी
रहे हैं। हमें अपनी कमियों और दुर्बलताओं की ओर देखना पड़ेगा और अगर हम
डनसे उबर न पाए तो ये हम पर हमेशा की तरह शासन करते रहेंगे। दूसरी तरफ
नारी है जीवन और जगत् से उसने जितना कुछ गाया है और अन्दर से भी वह जितनी
समृद्ध है, उसके अनुपात में अपनी ओर से भी वह कुछ दे पायी है... जोड़ पायी
है? आज इस बात की जरूरत है कि दोनों आपसी समझ और विश्वास का आधार तैयार
करें और सम्मान से रहें लेकिन मैं इसमें एक बात और जोड़ना चाहूंगी कि केवल
पुरुष-वर्ग के साथ अपनी समकक्षता की दुहाई देते रहने में उसकी सार्थकता
नहीं है।
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