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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


प्रश्न : क्या वह सवाल आपसे व्यक्तिगत तौर पर पूछा जा सकता है कि आप जो एक लम्बे अरसे से रचना के क्षेत्र में पूरी तनीनता उमेर सक्रियता से जुड़ी हुई हैं, घर-गृहस्थी के दायित्व को कैसे संभाल पाती हैं? क्या आपके रचनाकर्म में इससे कोई अबरोध पैदा नहीं होता?

उत्तर : नहीं। मुझे इन दोनों दायित्वों को निबाहते हुए किसी तरह का असंगति नही झेलनी पड़ा। दोनों ही तरह के कार्य समानान्तर पटरियों पर चलते रहे हैं। बल्कि एक-दूसरे के सहायक जान पड़ते हैं। लेकिन मैं वह भी लगकार करती हूँ कि आरम्भ में मुझे अपने घरेलू दायित्वों का पालन करने में काफी समय देना पड़ता था और वह मेरे लिए महत्त्वपूर्ण भी था। लेकिन इससे मेरी रचनात्मकता में कोई बाधा नहीं आयी। और मैं लम्बे समय तक इसलिए लेखन-कार्य से जुड़ी रही कि मुझे हर हाल में वह सब लिखना था, जो में अन्दर और बाहर से महसूस करती रही।

प्रश्न : आपका लेखन दूसरे लेखकों-विशेषकर बाँग्ला के और भारतीय भाषा कें अन्य साहित्यकारों से कितना महत्त्वपूर्ण और विशिष्ट माना उना सकता है अपने रचनात्मक स्वभाव क नाते?

उत्तर : यह एक जटिल सवाल है। दूसरी भाषाओं में क्या लिखा जा रहा है, इसकी छोटी-मोटी जानकारियां के सिवा मेरे पास कुछ करने का नहीं है। मैं अपने साधनों पर विश्वास करती हूँ-साध्य तो सभी लेखकों का कमोबेश एक जैसा ही होता है अगर प्रेम और करुणा की दृष्टि आपके पास है तो कुछ भी मूल्यहीन नहीं, तुच्छ नहीं, अन्यथा नहीं। मनुष्य के मन से समस्त दुर्गुणों और दुष्प्रवृत्तियों के साथ-साथ तमाम विकृतियों, धूल-कादो-कीचड़ को धो-पोंछकर उस अमृतमय सत्ता को अपने बीच पाना, और उस अमृत सन्तान के प्रति अपनी आस्था को जगाये रखना ही साहित्य का काम है।

।। समाप्त ।।

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