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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


प्रश्न : आपका लेखक नारी की मर्यादा, आत्म-गौरव और आत्म-विश्वास के पर्याय रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है। आप उनके अधिकारी की प्रखर प्रवक्ता रही हैं। आखिर किन बातों से उत्साहित होकर आपने नारी को अपने लेखन का केन्द्र-बिन्दु बनाया?

उत्तर : लेखन-कार्य में मेरी अपनी व्यक्तिगत पसन्दगी-नापसन्दगी का सवाल कभी नहीं उठा। जो पात्र पहले बहुत प्रभावी ढंग से सामने आते हैं वे कभी-कभी कमजोर और कातर हो उठते हैं। महिलाओं या स्त्री-पात्रों में अधिकांशतः ऐसा देखा जा सकता है कि वे आरम्भ में बड़ी असहाय, अबला और अभिशप्त जान पड़ती हैं लेकिन स्थितियों के दबाव और अपनी निर्णयात्मक मानसिकता के चलते उनमें यथोचित बदलाव आता है और उनकी पात्रता को निश्चित गति और दिशा प्राप्त होती है।

इन तमाम पात्राओं में मुझे अपनी 'सुवर्णलता' सर्वाधिक प्रिय है। बात यह है कि प्रत्येक लेखक अपनी रचना में अपना जीवन-दर्शन पिरोना चाहता है। सुवर्णलता के माध्यम से मैंने कमोबेश अपनी बात कहने की कोशिश की है। मुझे कभी-कभी उसमें अपना प्रतिरूप दीख पड़ता है। ऐसा जाने-अनजाने हो गया है। पिंजरे में बन्द किसी पंछी की तरह छटपटाती और आकाश में उड़ने को फड़फड़ाती जिन्दगी की तरह। मैंने इस स्थिति को एक प्रतीक के रूप में लिया और नारी-जीवन के अनन्त और अन्तहीन संघर्ष को वाणी देने का प्रयास किया। और मुझे लगता है कि मैं इसमें कमोबेश सफल भी हुई क्योंकि इसमें नारी-मन की अन्तहीन छटपटाहट और संघर्ष को स्थापित किया गया था।

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