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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


प्रश्न : मूल्यों के विघटन की वजह से आज का आदमी कमजोर हो गया है या इसके लिए वह स्वयं कितना जिम्मेदार है?

उत्तर : कोई भी मूल्य अपने-आप में मूल्यवान या प्रासंगिक नहीं है। मूल्यवान है मनुष्य। मनुष्य का जीवन। वह स्वर्गच्युत है...स्वर्गभ्रष्ट है। अपने आर्थिक शोपण और सामाजिक दुरवस्था के चलते वह नगण्य हो गया है। प्रगति, आधुनिकता और गत्यात्मकता जैसी बातें कहने को ही रह गयी हैं। ये किताबी बातें हैं और अखबारी सुर्खियों में ही अच्छी लगती हैं। हमारे जीवन के रंग-रेशों में ये नहीं पैठी। यहाँ मनुष्य का जीवन सहमा और डरा हुआ है, वह कु-संस्कारों के आगे घुटने टेक देता है। जीवन को उनके अकृत्रिम, सहज और प्रकृत रूप में दिखा पाने का साहस न तो उसमें है और न साहित्य में। संस्कार है तो आस्था नहीं, आस्था है तो आत्मविश्वास नहीं, आत्मविश्वास है तो निर्णय नहीं, निर्णय है तो आगे बढ़ने का साहस नहीं। और तब मुझे लगता है कि आज का आदमी कितना कमजोर है, उसमें कितनी कमियाँ हैं, खामियाँ हैं। वह अपने माहौल के चलते कितना लाचार है और अपनी मानसिकता की वजह से कितना असहाय और कातर। उसकी हालत पर कभी गुस्सा आता है तो कभी तरस। कभी खीज होती है तो कभी हताशा का भाव मन में आता है। वाहरी चमक-दमक और शानो-शोकत की ओट में ऐसा जान पड़ता है कि कहीं कोई पीड़ा है, चोट है, कचोट है-जो निरी आंखों से दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन आदमी है चुपचाप तिल-तिलकर गलता-जलता और पिघलता रहता है....। और इसीलिए किसी व्यक्ति या पात्र के अचानक फट पड़ने पर या विद्रोह कर देने पर हम विचलित हो जाते हैं या इसे अन्यथा ले लेते हैं। दरअसल ऐसा नहीं होता।

यह अप्रत्यक्ष या अगोचर जगत् में निरन्तर उठने वाले तूफान का ही प्रत्यक्ष या इन्द्रियगोचर झंझावात होता है।...मुझे ऐसा जान पड़ता है कि आज समाज के लोगों में परस्पर सम्पर्क का जो बन्धन है केवल अभ्यास या अनुशासन मात्र है। जिन वस्तुओं के प्रति मनुष्य सचमुच लगाव का अनुभव करता रहा है-जिस स्नेह-प्रेम या प्यार को श्रेष्ठ मूल्य के तौर पर सहेजता रहा है-वह एक ही क्षण में शून्य के अंक में बदल जाता है। अवसर विशेप पर ये सारे सहारे और सम्बन्ध पहाड़े और आकड़े में तब्दील हो जाते हैं और उसकी गुणवत्ता और विशिष्टता खो जाती है। लेकिन मनुष्य इस अभ्यास के संस्कार को परम मूल्यवान समझकर गले में लटकाये फिरता है।

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