कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
प्रश्न
: आपकी कहानियों में इस आदर्श के सातत्य को लक्ष्य किया जा सकता है। लेकिन
क्या इससे आपके वक्तव्य पर भी कोई प्रभाव पड़ा है?
उत्तर
:
मैं पिछले पचास वर्षों से लगातार और नियमित रूप सै लिख रही हूँ और अब भी
थोड़ा-बहुत लिखना जारी है। उपन्यास या दूसरी विधाओं की वात जाने भी दे तो
इतना कहा जा सकता है कि मेरी कहानियों की संख्या भी हजारों में पहुँच गयी
है और जब उनकी याद आती है या मैं याद करती हूँ तो लगता है किन-किन
समस्याओं, पात्रों और क्षणों के सम्मुखीन होकर मैंने उन्हें लिखा था। उन
कहानियों के पचीसों संस्करण कई-कई नामों से प्रकाशित हो चुके हैं। उन
कहानियों को लिखे हुए जैसे एक अरसा हो गया और कलम के ऊपर से न जाने कितनी
ही आधियाँ गुजर गयीं। समाज के कल-पुर्जे बटल गये। समाज की मानसिकता में
बदलाव आ गया। शाश्वत मूल्य-बोध में भी परिवर्तन हुआ है। रचनाकार के भाव
वोध को भी यह
आँधी
विचलित करती रही है और यह स्वाभाविक ही है। पिछले पचास-साठ वर्षों में
दूसरे लेखकों के साथ मेरी भी कलम की भापा बदल गयी है, उसके रूप और
न्यास-गठन में पगन्तर आया है। लेकिन ये सारे परिवर्तन आंगिक हैं। मूल बात
तो राह है कि लेखक के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आया है।...मैं अपने
कथा-संसार की ओर नजर दौड़ाती हूँ तो पता चलता है कि निश्चित भावधारा या
उद्देश्य को लेकर लिखी गया अमुक कहानी में मैंने तब जो कुछ कहा था, आशिक
तौर पर ही सही, क्या वह आज भी प्रासंगिक रहा। मैं अपनी बात समुचित और
प्रभावी ढंग से और यथायोग्य पात्रों द्वारा करवा सन्की या खुद कह पायी। आज
के पाठक अगर उन कहानियों की सीढ़ियों से गुजरेंगे तो पिछले 5-6 दशकों में
जो अन्तराल आया है, जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया, तो शायद ठोकर भी खाएँगे
और घुटने भी फोड़ लेंगे। मेरी आरम्भिक कहानियों में से भी कुछ देसी
रहीं...जो तब के सम्पादकों और पाठकों को प्रिय लगीं थी लेकिन उनका स्वर या
तेवर निश्चय ही कठोर और रूखा था। लेकिन वे स्वीकार की गयी और तब उन
कहानियों का कडुवा सच भी सबको भाया था।
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