कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
प्रश्न
: क्या इसी आदर्श को लेकर साहित्यकारों को लेखन में प्रवृत्त होना चाहिए?
यह पत्रकारिता का आदर्श नहीं है।
उत्तर
: एक
का आदर्श दूसरे के लिए कोई विरोध या अवरोध पैदा नहीं करता। वह सहायक हो
सकता है अगर दृष्टि साफ रहे और आग्रह रचनात्मक हौ। मेरा जोर बराबर इस बात
के लिए रहा है कि साहित्य को एक बंधे-बँधाये दायरे में रखना और फिर आदर्श
की बात करना बेमानी है। इस विपुला पृथ्वी इस अजीबोगरीब दुनिया और इसके
विचित्र पात्र-संसार को, इनकी धड़कनों को
और
इन सबको जोड़नेवाली किसी धारा की अजसता को बींध पाना बहुत मुश्किल है।
साहित्य की सीमाओं को आदर्श के घाट से बींध रखना भी शायद इतना ही मुश्किल
है।
ऐसा
इसलिए कहा जा रहा है किसी एक व्यक्ति की किसी वस्तु या सत्ता के प्रति जो
निष्ठा है, सम्भव है दूसरे किसी व्यक्ति या पात्र के लिए उसकी इयत्ता या
पात्रता का वैसा मोल न हो। बहुत सम्भव है वह उसके लिए कुछ या मूल्यहीन हो।
और यह भी हैरानी की बात हो सकती है कि एक ही जीवन में डस मूल्यबोध का
रूपान्तर घटित हो और एक वार निश्चित किया गया मूल्य या सत्य परवर्ती
घटनाओं और मनःस्थितियों के आलोक में एक नये रूप में परिणत या पुनर्वार
निर्धारित हो।
साहित्यकार
इसी प्रवहमान जीवन के कार्यव्यापार को रेखांकित और रूपायित करता है। वह
हमेशा के लिए एक ही केन्द्र-बिन्दू पर स्थितियों कौ स्थापित या
मनःस्थितियों को स्थिर नहीं कर सकता। युग, काल और समाज की मानसिकता लगातार
बदलती रहती है और इनके साथ ही साहित्यकार की जिज्ञासा भी। साहित्य का स्वर
और तेबर ही नहीं बदलता, रचनाकार की रचना का रूप, छन्द, शब्दचयन, भाषा का
मुहावरा और प्रयोग उसके युग-संकल्प को नया विस्तार देता है। यह सब कुछ
इसलिए बदलता है कि उसके तमाम आयोजन और प्रयोजन बदल जाते हैं। इस परिवर्तन
को रचनाधर्मिता के सातत्य में उसकी अजसता में देखा जा सकता है पर इस
प्रवाह को लौटा पाना जहाँ एक ओर असम्भव है दूसरी ओर वह अवांछनीय भी है।
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