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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


प्रश्न : आपके लेखन की मूल प्रेरणाएँ क्या रहीं?

उत्तर : मेरी लेखनी का प्रमुख आधार तो वही साधारण लोग थे जो घर की चारदीवारी में बन्द रहने के आदी हैं। यानी कि जो मैं हूँ और जो वे हैं। और मैं यह स्वीकार करती हूँ कि मेरी लेखनी का दायरा वही रहा, जो उनकी छोटी-बड़ी सीमाएँ हो सकती हैं। इसलिए मेरी कहानियों में कहानी का ढाँचा, जितना भी है और जैसा भी है...वह उनके द्वारा मुहैया किया गया है। और तय है कि वह ढाँचा बड़ा ही साधारण होता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सारा कुछ, सचमुच, इतना ही साधारण है? क्या सब कुछ बाहरी ही होता है? क्या डसकी ओट में चलनेवाली जीवन और जगत् की लीला इतनी ही साधारण है कि उसकी सरासर अनदेखी कर दी जाए? वहाँ कितनी विचित्र और विशिष्ट रंगों और स्वादों की दुनिया है। वैचिव्यपूर्ण जटिल विपुल और विशाल के साथ-साथ तुच्छ और क्षुद्र के बीच का न जाने कितना और कैसा संघात और अपघात। ऐसा भी होता है कि उस क्षणांश में, कोई प्रेरणा पाकर व्यक्ति या पात्र का जीवन एकबारगी और एकदम से बदल जाए। उसकी सत्ता बदल जाए, जीवन-दर्शन बदल जाए। और यह भी सम्भव है कि थोड़ी-सी आँच पाकर, कहीं से ठोकर पाकर, वह अचानक ऐसा महसूस करने लगे कि अपने टुच्चे अभिमान के चलते, उसने सारे जीवन को दाँव पर लगा दिया था और जिस झूठ या मिथ्या कवच को उसने

चरम-परम सत्य की संज्ञा दी थी-उसका खोखला अहंकार मात्र था। ठीक वैसे ही जैसे कि कोई काँच के टुकड़े को हीरा समझकर स्वर्ण मंजूषा में सहेजकर रखे। या फिर पत्थर के छोटे-से टुकड़े को शालिग्राम, समझकर पूजता चला आया है। यह ऐसे ही 'साधारण' लोगों के बूते की बात है कि वे पल भर के आवेग में एक कानी कौड़ी के पीछे अपने आपको बेच दें...मिटा दें।

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