कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
कोई कुछ कह रहा है, लगता
है वीणा आयी हुई है... सरोजवासिनी की बहन की बेटी... सगी बहन-बेटी।
यह
बात और है कि उसकी यह अभागी मौसी उसके नाना की हवेली की इकलौती बारिस है
इसलिए उसे फूटी आँखों नहीं सुहाती तो भी मर्यादा की रक्षा के लिए सबसे
पहले प्रणाम तो कर जाती है। इसके बाद दो-एक जली-कटी बातें सुनाकर दफा हो
जाती है। घर से तो नहीं जाती पर उन छोकरियों के साथ खुसर-पुसर करती रहती
है। लेकिन आज तो इधर आयी तक नहीं।
सरोजवासिनी
आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ाती हुई उनके कमरे की तरफ बढ़ चली। उनके कान पहले
से ही चौकन्ने थे।
और
सचमुच...जो बातें सुन पड़ा उनसे तो वह पत्थर बनकर ही रह गयीं। वह वहीं
दीवार से टिककर और गर्दन टिकाकर बैठ गयीं। सबसे पहले वीणा ने एकदम दबी
जुबान से कहा, ''अरे रहने भी दो...अभी...इसी घड़ी उसे मेरे आने के बारे में
बताने की कोई जरूरत नहीं है। बुढ़िया के शिकंजे से निकल पाना बड़ा कठिन
है।...जाते समय एक बार सलाम ठोंककर निकल जाऊँगी।''
सबकी सब खूब ठठाकर हँस
पड़ी।
इसके
बाद प्रतिमा की आवाज सुन पड़ा, ''अरे बहन...कुछ न पूछ...जिन्दगी तो एकदम
तबाह हो गयी है जैसे...चौबीसों घण्टे...वही किच-किच। क्या हुआ...कब
हुआ...कौन आया...क्यों आया था? बाप रे...बाप! नाक में दम कर देती है। अरे
भगवान ने जब आँखें छीन ली हैं तो काहे की डतनी ललक? इतने दिनों तक तो राज
करती रहीं...पता नहीं अब भी क्यों दुनियादारी की बातों में इतना रस मिलता
है? सबकी नकल थामे रखना...रत्ती भर को छोडना नहीं चाहतीं।''
''छोड़ने
की बात कर रही हो...।'' वीणा ने टपकते हुए कहा, ''इन बूढ़ों में छोड़ने की
जरा चाह नहीं होती...मेरे ससुर को भी ठीक यही रोग लगा है। बूढ़े तो हो गये
हैं लेकिन बचपना बढ़ गया है। दूसरे, कान से कुछ सुन नहीं पाते। चीखते-चीखते
गला फट जाता है। तो भी और जैसे भी हों समझाने की कोशिश करती हूँ तो ठीक
समझ लेते हैं। फिर छूटते ही कहेंगे...बहू...तुम हुक्का बनाकर नहीं दोगी।
मैं मन-ही-मन कहती हूँ...इसके बाद तो चिलम में दम लगाकर देना होगा।"
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