कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
सुबह
से ही...कोई भी सरोज बुआ के पास नहीं आया। आज के अखबार में छपी खबरों के
बारे में जानने की इच्छा होती है। अगर किसी में पढ़कर सुना देने का आदर
भाव हो...तो वह कुछ जान पाए।
और तुम लोग तो पढ़ती ही
हो? अगर जरा जोर से ही पढ़ लिया तो तुम लोगों का क्या बिगड़ जाएगा भला?
सरोजवासिनी तीन-चार दिनों
के बाद अखबार की कोई खबर न पाकर बेचैन हो उठती हैं। बुरा कैसे नहीं मानें?
सब-के-सब बड़े निर्मम हैं।
लिखना-पढ़ना
बन्द हो जाने की वजह से सरोजवासिनी की दुनिया कितनी सूनी हो गयी है, वे यह
नहीं समझते। इसके ऊपर से, प्रतिमा की माँ कल वैसे ही अनाप-शनाप बक गयी है,
''अरी बहन तुम्हारी तो सिफइ आँखें ही गयी हैं। तुम्हारे हाथ-पाँव-दाँत-दिल
और दिमाग तो सही-सलामत हैं। कानों से सुन रही हो...जो खाती-पीती हो हजम भी
हो जाता है...चल-फिर लेती हो। अगर मेरी बड़ी दीदी का हाल देख लो न...तो पता
चले। तुम्हारे ही उमर की होगी...और क्या? लेकिन एकदम अपाहिज बनी बैठी है।
न तो कानों से कुछ सुन पाती है...न आँखों से देख पाती है...चबाकर कुछ खा
नहीं पाती...तिनटंगी बुढ़िया बनी बैठी रहती है।''
अकेले
बैठकर सरोजवासिनी आतंक पैदा करने वाले आगामी दिनों की कल्पना करती रहती
हैं। उन्हें अपने विधाता पर भी गुस्सा आ रहा था और वह उसी आक्रोश में अपने
होठ चबा रही थीं। दी हुई चीजें छीन लेना सबसे घिनौना और नीचता से भरा काम
है। और विधाता नीचता से भरा यह काम क्यों और कैसे करता है। उसे लाज नहीं
आती। जो थोड़ा-बहुत दिया है उसे फिर एक-एक कर छीनने क्यों लगता है? पहले
अपने पास बुला ले और फिर एकबारगी सब छीन-झपट ले...किस्सा तमाम।
लेकिन ऐसा तो करेगा
नहीं...जिन्दा रहते ही...
अचानक...उसकी सोच में खलल
पड़ गया।
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