कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
एक
बार फिर खिलखिलाहट की लहरें कमरे की दीवारों से टकराने लगीं...और भी
जोर-जोर से। लगता है सारी की सारी छोरियाँ यहीं डकट्ठी हुई हैं।
''वीणा दीदी भी खूब मजाक
करती हैं।''
''हमारी ननद जी तो शुरू
से ही बड़ा रसीली रही हैं...।''
अपने बारे में यह सब
सुनकर वीणा को एक दूसरे प्रसंग के साथ इस अखाड़े में उतरना पड़ा...अपने
प्रशंसकों को हेसान।
"हमारी
मौसी का हाजमा तो फिर भी ठीक-ठाक है। लेकिन हमारे ससुर...कुछ मत पूछो,
हजम-बजम तो होता नहीं.. लेकिन रात-टिन एक ही रट लगाये रहते हैं यह खाऊँगा
तो वह खाऊँगा..."
''ले खाओ...और भकोसो.. और
अपनी गीली धोती सेभालर्ते रही।''
''अरे बाबा...पिछले
बहत्तर साल से तो पेट में झोंकते ही रहे हो''
''न
जाने कितने तरह के माल-मिठाई और पूए-पकवान उड़ाते रहे हो और उस महा-पापी
पेट के हवाले करते रहे हो। पर क्या मजाल कि हथियार डाल दें। कभी कहेंगे,
'क्या रानी...बहुत दिनों सें पनीर के पकौड़े नहीं खाये...तो ताल के बड़े
नहीं खाये...। बहूरानी, इधर कई दिनों से चने की दाल भरी कचौरियाँ नहीं
बनी?' लगता है हम लोगों की कोई घर-गिरस्ती ही नहीं है...शौक-मौज ही नहीं
है। बस...उनकी फरमाइशें ही पूरी करते रहो...। मैं तो तंग आ गयी हूँ...।''
लेकिन अब की बार बनो हँसी
की किर्चियाँ छूटीं उनमें बातचीत का अन्तिम सिरा सरोजवासिनी के हाथ नहीं
लगा।
इसके
बाद भी न जाने कितनी बातें होती रहीं। सरोज बुआ को भी उनी भरकर कोसा गया।
सभा में सर्वसम्मति से यही अभिमत व्यक्त किया गया कि बूढ़ों को अपनी सारी
इच्छाओं का त्याग करना चाहिए। इस सच्चाई को स्वीकार न कर पाने की वजह से
ही दुनिया में इतनी अशान्ति है।
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