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किर्चियाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


हाथ पकड़कर...कहीं ले जाकर बिठा देने पर क्या पता किधर निकल जाएँगी ये छोरियाँ...और सरोज बुआ बैठी-की-बैठी ही रह जाएँगी। उस खास डलाके को छोड़कर पात नहीं किधर जाकर किस-किस की आलोचना कर सकती हैं-माँ की नौकरानी की और कानी बुढिया की...। बात यह है कि उनकी आंखों सै परे सरोज बुआ की अनजानी चहलकदमी से पता नहीं...कब किसके सामने...डन लोगों की वे बात उजागर हो जाएँ...जो नहीं होनी चाहिए।

यही वजह है कि सरोज बुआ दीवार का सहारा लेकर सहन या बरामदे में जाकर बैठ जाती हैं...विनय के दफ्तर चले जाने कैं वाद। भले ही वे रास्ता देख नहीं पाती लेकिन आस-पास गुजरने वाली गाड़ियों की आवाज और दूसरे वाहनों की चहल-पहल उनके कानों में पड़ती है...शब्द और स्वर का जो संसार है...उसे अपनी मुट्ठियों में बाँध रखने के लिए।

आज लौटते समय स्टूल के पाये से पाँव का अँगूठा बुरी तरह टकरा गया...लेकिन सरोज बुआ ने डर से उफ तक नहीं की। उन्हें पता है...चूँ नहीं की कि वे सब-की-सब दौड़ा आएँगी और जो मन में आएगा...बकती रहेगी। हो सकता है अपने बाप को नमक-मिर्च लगाकर इस बारे में बताएँ...और फिर 'हाथ पकड़ बुढ़िया' बनाकर ही छोड़ें।

ओह...आह...को अपनी जिद के तले कुचलते हुए उन्होंने अँगूठे के पार के उँगलियों से टटोलकर देखा...खून तो नहीं निकल रहा? नहीं अँगूठे ने खून नहीं उगला...। अगर वह चोट से काला पड] गया तो...इसका भला किसका पता चलेगा...? और सरोज बुआ के पैरों में...कौन है जो अपनी आँखों से कुछ टोहना चाहेगा?

आँखों के आगे वासन्ती रंग की किर्चियॉ छूट रही है...धूप सर पर सवार होगी। लड़कियाँ कॉलेज या स्कूलों में पढ़ने चली गयी होगी।

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