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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''देवर जी, ऐसा करो कि अव तुम्हीं श्रीरामपुर चले जाओ...।''

अपर्णा ने श्रीकुमार के ज्वरग्रस्त हो जाने की सूचना के साथ ही बड़े सहज ढंग से प्रस्ताव रखा था। उसके लिए यह कोर्ड खास बात न थी। शेफाली बिटिया के स्कूल तक पहुँचा देने जहां मामूली-सी बात।

इधर आभा सर से पाँव तक विचलित हो उठी थी। काश, अपर्णा की इस सहज मूर्ति को वह चूर-चूर कर पाती। सादगी से भरी उसकी प्रतिभा को ढहा देने वाला कोई मन्त्र!... ओह...क्या करे वह?

सुकुमार ने आभा की ओर ताकते हुए आनाकानी भरे स्वर में कहा, ''मैं...। मैं भला कैसे...मैंने तो कभी सोचा...''

''कैसी मुसीबत गले पड़ी है। और क्या...? अभी यही नौ बजे वाली गाड़ी से...'' कहते-कहते आभा के शरीर का सारा खून जैसे कलेजे में जाकर जम गया और चेहरा तमतमा उठा। आखिर उसके जी की जलन जुबान तक आ ही गयी, ''वह कैसे जा पाएगा, दीदी! आज उसका रविवार का व्रत जो ठहरा।''

''ठीक है। फिर वह ऐसा करे कि जल्दी तैयार होकर भात का प्रसाद पा ले और दूसरी गाड़ी से चला जाए। श्रीरामपुर जाने वाली गाड़ी तो हर घण्टे-आध घण्टे पर मिलती रहती है।''

अपर्णा के लिए तो ले-देकर बस गाड़ी की ही सुविधा-असुविधा है। और इधर भात-प्रसाद की तैयारी में आभा परेशान हो उठी है।

''ऐसा नहीं हो सकता कि...,'' आभा ने कलेजे पर पड़ा पत्थर हटाते हुए कह ही दिया,''...नन्दा की रवानगी दो दिनों के लिए टल जाए। आज के दिन उसका जाना इतना ही जरूरी है? इतने दिनों तक तो पड़ी रही। दो दिन और रह गयी तो क्या महाभारत हो जायगा?'' आभा ने अपर्णा की ओर बिना आँखें उठाये ही यह सब कहा। अपर्णा के होठों पर आहिस्ता-आहिस्ता फूट पड़ने वाली मुस्कान की अनदेखी कर। लेकिन यह क्या? अपर्णा मुस्करा नहीं रही बल्कि हैरान खड़ी है और कह रही है, ''तू इस मामूली-सी बात का बतंगड़ बनाने पर क्यों तुली है, छोटी बहू? दो-चार घण्टे की ही तो बात है। देवरजी शाम तक वापस लौट आएँगे और अपनी सन्ध्या-पूजा कर ले सकेंगे। इसमें परेशानी की क्या बात है भला! नन्दा के घरवालों को चिट्ठी लिखी जा चुकी है। अगर वह नहीं पहुँव सकेगी तो उन्हें अच्छा लगेगा? है कि नहीं, देवरजी? उन्हें यह बात बुरी नहीं लगेगी क्या।''

इधर देवर है कि कुछ समझ नहीं पा रहा। अपनी गर्दन हिलाकर क्या कहे...हां कि ना।

और आभा? उसके हृदय का एक-एक तार एक साथ झनझनाकर जो कुछ कहना चाह रहा था, उसे वह अपने होठों पर ला नहीं सकती थी। इसलिए वह तेज कदमों से कमरे से बाहर निकल गयी।

हे नारायण! क्या तुम एक बार भी अपना मुँह ऊपर उठाकर देखोगे नहीं। ऐसा नहीं हो सकता कि सुकुमार को भी इसी घड़ी तेजी से बुखार आए और उसे दबोच ले। एक सौ चार...पाँच और भी ज्यादा। या फिर नल के नीचे नहाते हुए उसका पाँव फिसले और वह दुर्घटनाग्रस्त हो जाए। ऐसा भी तो होता है कि बिला किसी वजह सिर चकरा जाता है और आदमी धड़ाम से गिर पड़ता है। चाहे जैसे भी हो, ऐसी कोई विपदा टूट पड़े तो उसकी जान बचे। क्या ऐसा नहीं होगा? आये दिन होने वाली दुर्घटना क्या इतनी दुर्लभ वस्तु है? तो फिर आभा क्या करे, कहीं जाए!

अपने समस्त 'फल-जल' हविष्यान्न और पूजा-पाठ का सारा ताम-झाम बेकार करके यह रविवार का दिन कहीं गायब हो जाता है। आखिर किस पर भरोसा कर पाएगी आभा?

रेल का एकान्त डिब्बा और किसी तीसरे आदमी की अनुपस्थिति-इस बात की कल्पना से ही उसका बदन सिहर उठता था। उसकी इच्छा हुई कि वह दीवार पर अपना सिर दे मारे और वहीं जान दे दे।

आखिर अपने पति के बारे में उससे ज्यादा और कौन जान सकता था भला!

* * *

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