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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह



पद्मलता का स्वप्न

पति के घर से अपने पिता के घर-दूसरे शब्दों में, ससुराल से मैके आने की इच्छा-अस्वाभाविक नहीं है। और फिर एक ही जगह रहते-रहते पैदा हुई ऊब को दूर करने के लिए भी लड़कियाँ अपने पिता के घर आना चाहती हैं।

नये ढंग से कुछ दिन जी लेने और मुक्ति की साँस लेने।

बाप के जिन्दा न रहने पर वे भाई के घर भी आती हैं। लेकिन जिसके न तो बाप जीवित हो और न कोई भाई ही हो-ऐसी पद्मलता क्या दोबारा अपने गाँव सोनापलाशी की धरती पर पाँव नहीं रख पाएगी? सोनापलाशी-जहाँ उसके बचपन और जवानी के दिन बीते थे।

भले ही सुख और शान्ति या कि बड़े सम्मान के साथ ये दिन बीते हों लेकिन दुख और अपमान भरे दिनों की स्मृतियों का भी आकर्षण कम नहीं होता। यह भी हो सकता है कि अपनी पहचान को एक बार फिर से पा लेने की या लोगों के बीच स्वयं को प्रतिष्ठित करने की प्रबल लेकिन दबी इच्छा पिछले सात वर्षों से पद्मलता के मन में रही हो।

सोनापलाशी के लोग जदु लाहिड़ी के घर की गरीब ब्राह्मणी महराजिन की बेल 'पदि' को अचानक पद्मलतादेवी के रूप में देखकर हैरान रह जाएँगे। और यही देख पाने की इच्छा उसने अपने मन में सँजो रखी है। पिछले सात सालों से, दिन हो या रात, तिल-तिल कर इस पौध को इतना भरा-पूरा और हरा रखा है उसने। इसे अपने खयालों में बसा रखा है। कितने ही रंगों और उल्लास की छटाओं से इस चित्र को अंकित करती रही है।

इस प्रसन्नता के अलावा पद्मलता के जीवन में और किसी चीज की साध या सार्थकता नहीं रह गयी है। इसीलिए काफी कोशिशों और चिरौरियों के बाद पति की अनुमति प्राप्त कर वह इतने सालों बाद सोनापलाशी घूमने आयी है।

...और उसका यहाँ आना अकारण नहीं गया है। उसे अपने बीच देखकर सभी सचमुच हैरान रह गये हैं। इतने दिनों बाद, उसके यहीं इस गाँव में आने पर नहीं बल्कि उसके बात-व्यवहार पर गाँववाले हैरान हैं। हैरान ही नहीं, कहना चाहिए कि एकदम ठगे-से रह गये हैं।

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