कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
सुकुमार किसी भी मामले या
झमेले में चुप्पी साधे रहता। न इधर, न उधर।
''बात
क्या है?'' श्रीकुमार ने पूछा, ''वह कहीं जेल में तो नहीं बन्द है। जब वह
बेटा लेने नहीं आया तब तू अपने मन से वहाँ क्यों जाएगी? कुछ दिन और रुक
जा।''
उधर
भण्डार-घर में बैठी आभा दाँत पीसती और मन मारे बैठ गयी। मन-हीं-मन बोली,
'हां, रहेगी कैसे नहीं यहीं? ऐसी पनखौकी, बेपरवाह और दिल्लगी करने वाली
तुम लोगों के ही घर में पड़ी रह सकती है। पता नहीं क्या मजबूरी है? मेरे बस
की वात होती तो में झाड़ू मारकर बाहर निकाल देती।'
सखी
भाव की मुंहलगी सरसता बहुत पहले ही सूख चुकी थी। बातचीत में कोई नयी बात
रह नहीं गयी थी। इसीलिए युवती-सी दीखने वाली नन्दा की भरी-पूरी सेहत और
बेमतलब जान पड़ने वाली चंचलता आभा की आँखों को आजकल तनिक नहीं भाता। उसका
जी उसे देखते ही जल उठता। नन्दा ने भी जब यह देखा कि कहीं घास नहीं डाली
जा रही तो वह भी एक किनारे हो गयी। शायद यह भी एक कारण था जिसके चलते वह
इस घर से फूट जाना चाहती थी। उसने यह भी सुन रखा था कि छोटी देवरानी की
तबीयत ठीक नहीं। ऐसी नाजुक घड़ी में अगर वह वहाँ नहीं गयी तो पता नहीं बाद
में क्या कुछ सुनना पड़े?
अन्त
में, अपर्णा ने ही कथा का श्रीगणेश किया। उसने कहा, ''हमारी छोटी ननदजी
बड़ी परेशान हैं इन दिनों। परसों रविवार है, उसे श्रीरामपुर तक छोड़ आओ।''
''किससे कह रही हो'',
श्रीकुमार ने मुँह में कौर रखते हुए पूछा, ''मुझसे?''
''पागल हो गये हो! भला
तुम्हें क्यों कहने लगी? मैं तो बूढ़े बाभन महाराज से कह रही थी।''
अपर्णा का स्वर तीखा हो
गया।
''अच्छी मुसीबत है। क्या
उसे कोई लिवा जाने के लिए नहीं आएगा?''
''कोई आया भी तो नहीं।''
अपर्णा ने आगे जोड़ा, खैर, ''तुम्हीं पहुँचा आओ। बड़ी परेशान है बेचारी।''
''ठीक है, जाना कब है?
मेरा मतलब है गाड़ी कितने बजे की है?''-श्रीकुमार ने बड़ी सादगी से यह सवाल
किया था।
''डरने की कोई बात
नहीं,'' अपर्णा ने अपनी धारदार मुस्कान को दबाते हुए कहा, ''शाम होने तक
लौट आओगे।''
ऊधर
आभा ने जब यह बात सुनी तो वह न केवल हैरान थी बल्कि उसे अचरज भी हुआ।
अपर्णा का यह दुस्साहस! इस निरंकुश दुस्साहस का अधिकार आखिर उसे किसने
सौंपा है? इसके अलावा, वह किसी दूसरे व्यक्ति की अनुपस्थिति में, नन्दा के
साथ अपने पति के जाने की बात की कल्पना तक नहीं कर सकती। आखिर अपर्णा इतना
साहस कहीं से जुटा लेती है! और जिस साहस के बूते पर वह अपने पति को शेरनी
के बाड़े के अन्दर भेज देने या फन काढे नागिन के सामने खड़ा कर देने से भी
नहीं झिझकती। आखिर क्या बात है उसमें?
लेकिन
उसके लिए अब भी राहत की बात यही थी कि बड़ी जेठानी ने सुकुमार के पास यह
प्रस्ताव खुद नहीं रखा था। भगवान ने अब तक उसकी रक्षा की थी। लेकिन स्वयं
भगवान भी उसकी रक्षा बहुत देर तक नहीं कर सका। उसने अपना वह रूप छिपा लिया
और इसके साथ ही आभा के साथ जैसे विश्वासघात हो गया। इस बात की सम्भावना तो
किसी को नहीं थी कि रात को श्रीकुमार अचानक ज्वरग्रस्त हो जाएँगे। वह
श्रीकुमार, जिसने कभी सिरदर्द तक की शिकायत न की हो। यह क्रूर विधाता का
षड्यन्त्र ही तो था।
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