कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
लेकिन वह पूरी तरह गायब
भी नहीं हुई। वह दरवाजे के पास जाकर खड़ी हो गयी थी। उसने पराशर की ओर ताके
बिना कहा, ''अच्छा...मैं चली।''
इसके बाद इतना ही सुन
पड़ा, 'दुर्गा...दुर्गा...।'
अच्छा...कितने दिन पहले
और कब पराशर ने अपनी माँ को माँ कहकर
बुलाया
था और कोई बात की थी। कुछ याद नहीं आ रहा। माँ के कुछ कहने पर या कुछ
पूछने पर...हाँ-हूँ...करके उसने अपना दायित्व भर टाल दिया है।
माँ
के पास आने पर ही उसे एक तरह का डर लगने लगता था...बेचैनी-सी होने लगती।
क्या पता, माँ कोई बेसिर-पैर की बात कर बैठे और इनके साथ ही कोई बिफरी
नागन अपना फन उठाकर फूत्कार भरने लगे।
आखिर ऐसी कौन-सी बातें
माँ किया करती थीं?
पराशर
अचानक परेशान हो गया। अभी...इसी घड़ी...इतनी जल्दी वह माँ के लिए 'अतीत'
सूचक शब्द या क्रिया की बात सोच रहा था।...माँ कहती थी। लेकिन ऐसी कभी कोई
उल्टी-सीधी बात की हो या दबाया-छिपाया हो...ऐसा नहीं जान पड़ता। ही...एक
दिन की बात उसे याद है। माँ ने अचानक उससे कहा था, ''अरे तू इतना
कमजोर-कमजोर-सा क्यों लग रहा है रे...तेरी हँसली दीखने लगी है...बात क्या
है?''
बस...इतना ही तो कहा था।
बस...इसी बात पर कैसा
तूफान बरपा था...कैसा हंगामा खड़ा किया गया था।
असीमा
ने भण्डार-घर की चाबी (जो पहले माँ के आँचल के छोर से बंधी रहती...पता
नहीं कब और कैसे असीमा ने उसे लपक लिया था) माँ की तरफ फेंककर कहा था,
''कल से आप पर ही इस घर-संसार का भार रहा। बेटों का खान-पान लाड़-जतन और
रख-रखाव...सब आप ही करिए-धरिए।...ओह...दूसरे के हाथ का खिलाया-पिलाया उनकी
देह को लग नहीं रहा...हँसली उभर आयी है।''
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