कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
उस
चाबी को दोबारा असीमा के आँचल के हवाले करते हुए माँ को न जाने कितनी
चिरौरी करनी पड़ी थी। और तभी पराशर ने माँ को बुरी तरह डपट दिया था, ''हर
घड़ी वही बेवकूफी भरी बातें।'' माँ चुपचाप...और असमय ही पूजाघर में जा बैठ
गयी थीं।
पराशर
नाम के आदमी की आँखों के सामने ऐसी कोई हँसती-मुसकराती और उजली-सी तसवीर
नहीं थी। इसके बदले वहाँ एक उदास और मलिन-सी छाया बिखरने वाली मूर्ति खड़ा
थी जो मूर्ति भी नहीं कही जा सकती...क्योंकि उसके कोई चेहरा नहीं था।
दरअसल उसके चेहरे की तरफ ठीक से देखा भी कहां गया? पिछले कई-कई दिनों
से।...तो भी।
इसी उदासी भरी छाया से एक
गहरा और गम्भीर स्वर गूँज उठता है : ''माँ एक दिन ऐसा कुछ कर
गुजरेगी...मुझे पता था...।''
''तुमने
ठीक ही कहा,'' किसी ने समर्थन करते हुए कहा, ''छोटी बहू कभी-कभी तो बिना
वजह ही मेरे मुँह सामने ऐसी कुछ जली-कटी सुना देती थी कि दुःख या अपमान से
तंग आकर...वह किसी-न-किसी दिन कुछ कर बैठेंगी।''
दूसरे
ने कहा, ''भैया की बात गलत नहीं...मैं भी कभी-कभी यह सोचकर घबरा उठता था।
बड़ी बहू धीरे-धीरे घर-संसार पर अपना उाधिकार और आतंक बढ़ाती चली जा रही
है। जिसके हाथों यह सारी घर-गृहस्थी फली-फूली, उसके हाथों से सारा कुछ छीन
लिया गया। किसी भिखारी को एक मुट्ठी दाना देने के लिए भी हजार बार सोचना
पड़ता था। पूछना पडता था...बहूरानी किस डब्बे में से लेना होगा...ऐसा जान
पड़ता था कि वे इस घर-संसार की कोई नहीं हैं...कहीं बाहर से आ टपकी हैं।''
इस
बात को सभी जानते थे। वर्ना एक पाँच-साढ़े पाँच साल का बच्चा भी उसके लापता
हो जाने की खबर सुनते ही ऐसा क्यों कह उठा, ''लगता है कि दादी गंगा में
डूब मरी।''
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