कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
बहू के चेहरे पर उजास-सी
फैल जाती है...वह कहती है, ''बस बेटे...अभी आयी...पाँच मिनट और...हँ...।''
यह बहू नहीं है...माँ है।
सचमुच...! उसकी माँ इतनी
सुन्दर थी...उसकी हँसी इतनी प्यारी थी...इस बात को परमेश क्योंकर भूल गया?
उसकी
माँ दुनिया भर के काम-काज के बीच भी थोड़ा-सा समय निकालकर उनके पास बैठ
गयी। बच्चे क्या यूँ ही खाली बैठे रहेंगे! और इन बच्चों की सारी देखभाल और
साल-दर-साल उनका खयाल केवल माँ ही करती रही थी।
अच्छा...तो!
इसके बाद क्या हुआ?
लेकिन
पराशर नाम का आदमी अपने मन-मानस में माँ नाम के साथ जुड़े गौरव या उसकी
उजली तसवीर को अपने इर्द-गिर्द नहीं पा रहा। परमेश की आँखों में उभरती है
बस एक ही तसवीर...काली और बीमार- थान के कपड़े से लिपटी एक मूर्ति। वह उनके
खाने की मेज के पास आकर खड़ी हो गयी। लेकिन उसकी तरफ किसी ने नहीं देखा।
पराशर ने भी नहीं। वह मूर्ति भी धीरे-धीरे आँखों से ओझल होने लगी थी।
इसके
बाद उसने पाया कि...उस छाया में विलीन होती हुई मूर्ति के होठ हिले और
उसने एक सवाल किया कि तभी किसी बहू की तेज आवाज सुन पड़ी। पराशर ने कहा,
''तुमने बहुत ज्यादा खाना बना लिया है, माँ! अब तुम इनके बीच अपना दिमाग
खराब करने क्यों आयी हो...? अब इस घड़ी इससे ज्यादा और कुछ खाया जा सकता
है?''
छाया मूर्ति पीछे सरक गयी।
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