कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
सचमुच
बड़े आश्चर्य की बात थी। लेकिन इस तरह की आपत्तिजनक बात का भी सारे रंगमंच
पर तनिक भी विरोध नहीं किया गया। न तो प्रखरा बड़ी बहू और न मुखरा छोटी बहू
के गले से। यहाँ तक कि पराशर का चिरविरोधी परमेश भी चुप ही खड़ा था। परमेश
जो बचपन से ही भैया के हर-बात चाहे वह ईस्ट बंगाल हो या मोहन बागान,
कांग्रेस हो या सी. पी. एम., नजरुल गीति हो या अतुल प्रसादी गान-किसी भी
बात या विपय को काटना ही जिसका शौक रहा था...वह भी आज मूँग बना हुआ था। एक
शब्द तक बोल न पाया। ऐसा लगता था कि सारी दुनिया को ही काठ मार गया हो।
हालाँकि
लीलावती ने मना कर दिया था कि उन्हें कहीं से ढूँढ़ निकालने की कोशिश न की
जाए लेकिन ऐसा कैसे हो सकता था! लेकिन तो भी...इस घड़ी...कोई कुछ समझ न पा
रहा था कि क्या किया जाए? घर का माहौल एक भारी लेकिन खामोश चट्टान की तरह
इन चारों के सीने पर अड़ गया था।
इसी
चट्टान के नीचे से परमेश किसी तरह देख पा रहा था-दो बच्चे स्कूल से लौट
आये हैं और इधर-उधर धमाचौकड़ी मचा रहे हैं...उछल-कूद रहे हैं और रंगीन साड़ी
में मुस्कराती एक बहू उन्हें बार-बार पुकार रही है, ''अरे तुम दोनों को
कुछ खाना-पीना नहीं है...बाबा...अरे तुम्हें भूख-बूख नहीं लगती? घर आये
नहीं कि चोर-सिपाही का खेल शुरू...।''
वह देख रहा है कांसे की
दो तश्तरियों में रोटियाँ और थोड़ी-सी सब्जी रखी है।
एक लड़का ऊँचे स्वर में
बोल उठता है, ''मैं रोज-रोज यही रोटी...नहीं खाऊँगा...छोड़ो...।''
बहू उसे बड़े प्यार से
मनाती है। उसकी खुशामद करती हुई कहती है...''अच्छा कल पराँठे बनाकर
रखूँगी...आज तो खा ले।... ''
वह
देख रहा है कि दोनों बच्चों में से एक रसोईघर के सामने खड़ा होकर चीख रहा
है। ''...सारे दिन तुम यही सड़ी-गली चीजें लेकर बैठी मत रहो...। चलो...अब
जल्दी से एक कहानी सुना दो।''
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