कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
ट्रभटन
ने अपनी जेब से टूटी चॉक, टूटी रंगीन पेंसिलें, आधी खायी और खुली कैडबरी
चाकलेट, कागज में तुड़ी-मुडी चुड्गगम निकालीं।...और पता नहीं क्या-क्या
ढूँढता रहा था इस जंगल में।
''यह
लो''...कहता हुआ उसने कटा-फटा-सा चार तहों में लिपटा एक भूरे रंग का कागज
उछालकर फेंक दिया और फटाफट जूते फरकारता सीधे कमरे में घुस गया।
आनन्दी दौड़ती हुई चली
गयी उस 'बेशरम' अरविन्द की दूकान पर।
चाकलेट
से गीली और लिसलिसी, भूरे रंग के ठोंगे के एक टुकड़े पर रिफिल के खत्म हो
जाने पर, डॉट पेन से टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में इस सम्बोधनहीन पर्ची से जितना
कुछ पढ़ा जा सकता और समझ में आया वह यह था कि लीलावती घर छोड़कर जा रही
हैं। अगर वह नहीं लौटे तो कोई भी उन्के ढूँढ़ने न जाए। उन्हें ढूँढ़ना
बेकार होगा...वह...
''वह क्या...?''
क्या खाक...यह तो लिखा न
था।
बुबु बुआ दीवार से पीठ
टिकाये बैठी थी, बोली, ''अब इसमें समझ में न आने वाली कोई बात ही नहीं
है।''
लेकिन यहाँ भी जमे बैठे
रहने का कोई उपाय न था...। आज उनके घर में नये-नये जमाई बाबू के आने की
बात थी। वे चली गयीं।
आड़े-तिरछे
अक्षरों में लिखे गये सन्देश को बार-बार पढ़ने और कुछ नया पकड़ पाने की
कोशिश करती हुई पराशर ने उस पर्ची को अपनी मुट्ठी में दबाते हुए बड़ी
गम्भीरता से कहा, ''माँ जी एक दिन इस तरह हंगामा खड़ी करेंगी...मालूम न
था।''
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