कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
लीलावती
की बहुओं की नाक और गींख से आन की लपट-सी निकल रही थी। और ठीक ऐसी ही
नाजुक घड़ी में काल-चण्डी की साक्षात् अवतार घर आकर बैठी हुई थीं। लीलावती
ने रहस्य का कैसा उलझा हुआ जाल फैला रखा है और उसी की एक साक्षी दी जा रही
है।
टुटुन
थोड़ा परेशान दीख पड़ा। उसने अपनी हाफ प्लेट की जेबों में हाथ डाला और
इन्हें टोहते-टटोलते बोल उठा, ''फिर तो दादी माँ गंगा में डूब मरने को ही
चली गयीं।''
"अंऽ...ऽ क्या कहा तूने?
इसका क्या मतलब...? आखिर तू ऐसा क्यों कह रहा है? बात क्या है?''
आसपास घिरे लोगों ने एक
साथ यह सवाल किया था...'' उन्होंने तुमसे कुछ कहा था? बता तो
सही...बता...जल्दी बोल...?''
टुटुन के गले से हकलाती
और सूखी-सी आवाज निकली, ''वह बोली...टुटुन...अगर मैं ना रहूँ...तो तुझे
बड़ा दुख होगा न...?''
''अच्छा...ऐसा कहा? तो
फिर तूने क्या कहा?''
टुटन
ने धूक घोटते हुए कहा, ''मैंने कहा था...कि...मुझे भला क्यों दुःख
होगा...? तुम क्या कभी मेरे जूते...किताब...काँपियाँ सहेजकर रखती भी हो।
मेरी टिफिन में खाने-पीने की चीजें डालती हो?''
''तूने ऐसा कहा था?
हां...तू तो बड़ा ही बेहूदा है रे...तुझे अपनी दादी माँ से जरा भी प्यार
नहीं।"
यहाँ
बेहूदा गाली का प्रयोग टुटुन पर ही किया गया था। टुटुन बौखला गया। उसने
बड़ी बहादुरी से पाँव पटकते हुए कहा, ''मैं क्या झूठ कह रहा हूँ। दादी यह
सारा कुछ करती है कभी? बस, जब देखो...तब पूजाघर में बैठी रहती है। और तुम
मुझे बेहूदा...। ठीक है.. मैं भी दादी की तरह।"
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