कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''दादी
माँ को!...ही, क्यों नहीं देखूँगा...? मुझे मुँह धोने में थोड़ी-देर हो गयी
थी...। मैंने बाथरूम के दरवाजे पर जब धक्का दिया। वे गीले कपड़े में बाहर
निकल आयीं और वोली, बाबा...ह...इत्ते छोटे-से हाथ में इत्ता जोर।''
''अच्छा...। तो
फिर...इसके बाद?''
''बस...इसके
बाद क्या? बुबु बुआ...। कब आयीं,'' और वह हँसने लगा। अ बुआ वैसे तो इन
दोनों के बाप की मुँहबोली बुआ थीं लेकिन ये सब भी उसे बुआ कहकर बुलाते थे।
''बस...! अभी थोड़ी देर
पहले।...तेरी दादी माँ कहीं मिल नहीं रही हैं...यह सुनकर।''
''क्या?''
टटन जैसे उछल पड़ा। उसने
बताया, ''इसके बाद दादी ने मुझसे एक कागज और पेन्सिल माँगा था।''
''अच्छा, कागज और पेन्सिल
माँगा था?''
''हां
फिर...मैंने कहा अभी कागज कहीं मिलेगा? तो फिर ये...'' टुटुन ने उस समय की
सारी बातों को याद करते हुए कहा, ''हां...ये कहा कि तो फिर पेन्सिल ही दे
दें।...ही....ही...दादी डाँट पेन को पेन्सिल ही कहती हैं।''
''जाने भी दो...। जो
चाहें कहती रहें। इसके बाद तुमने क्या किया?''
ऐसा लगा कि रहस्य और
रोमांच की गिरह खुल रही है।
''इसके
बाद मैंने एक बालपेन निकालकर दिया। दादी ने...ही...ही...पता नहीं ठोंगे के
कागज पर क्या कुछ लिखा। फिर गुस्से में केहा...क्या खाक पेन्सिल है...।
इससे तो कुछ लिखा ही नहीं जाता। अब...ठीक उसी समय रिफिल खतम हो गयी तौ
इसमें मेरा दोष...अँ...ही...।''
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