कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
यानी
कि डन सारी बातों पर अभी मिट्टी डालो। लेकिन श्रीकुमार आज कुछ ज्यादा ही
विचलित हो उठे थे। वे ड्तनी जल्दी सारा कुछ निपटाने के पक्ष में नहीं थे।
तनिक उत्तेजित स्वर में बोले-''अपर्णा, मैं इस बात से अनजान नहीं कि मेरा
आचरण तुम्हारे लिए अपमानजनक रहा है। ठीक है लेकिन तुम्हारे द्वारा शह दिये
जाने की बात की भी मैं अनदेखी नहीं कर सकता। मुझे यह ठीक ही जान पड़ता है
कि इस रवैये में थोडा-बहुत बदलाव आना ही चाहिए।''
अपर्णा
ने छूटते हुए लेकिन बुझे स्वर में कहा, ''मुझे भी यही सही जान पड़ता है।
सोच रही हूँ अगली बार जब दर्जी घर आएगा तो तुम्हारे कुरते के बदले कुछेक
बनियान सिल देने को कहूँगी।''
''तो फिर ऐसी बात का
मतलब?'' श्रीकुमार ने हैरानी से पूछा।
''मतलब यह है जनाब कि
थोड़ा-बहुत बदलाव तो आना ही चाहिए।''
''फिर तुम्हारा वही मजाक?
क्या तुम यह सोचती हौ कि मेरे लिए कंचन को छोड़ पाना...।"
"छी...छी..."
अपर्णा
की इस तीखी फटकार से श्रीकुमार अपनी बात पूरी नहीं कर पाये। उनका चेहरा
मुरझा गया। लेकिन पति के उस फीके चेहरे की ओर अपर्णा देखती रही और
धीरे-धीरे उसका मुखमण्डल चमक उठा। उसने अपने स्वाभाविक तेवर में कहा,
''मेरी यह बात तुम उससे कहते तो होगे कि मेरे लिए वह सौत नहीं काँटा है,
जिसके मर जाने पर सिक्के लुटाऊँगी।...क्या कहती है यह सब सुनकर तुम्हारी
इकलौती 'चिराश्रिता' दासी?''
सुकुमार
अपने सोनेवाले कमरे में था। तहकर चौकोर किये गये एक कम्बल पर 'अध्यात्म
रामायण' का पहला काण्ड या फिर ऐसी ही कोई लम्बी-चौड़ी पोथी के पन्ने उलट
रहा था। तभी आभा कमरे में आती दीख पड़ी और उससे पूछ बैठी, ''यह मास्टर साहब
को छुड़वाने की बात मेरी समझ में नहीं आयी।''
सुकुमार ने कुछ कहा नहीं।
शायद सुना भी नहीं।
''सब
ढोंग है ढोंग,'' आभा ने होठों को बिचकाते हुए शाम को घटी घटना के बारे में
संक्षेप में बता दिया। ''पहली बार इसी घर में आकर देखा कि पति की बुरी लत
को किस तरह बहादुरी का दर्जा दिया जाता है।''
''मेरा
तो यह सब सोचकर ही सिर चकराने लगता है। क्या कहूँ...क्या करूँ...बड़े भैया
हैं, लाचारी है...! गुरु देव...गुरु देव,'' यह कहते हुए सुकुमार ने कमली
आसन को लम्बा किया और उसी का बिछावन बनाकर सो गया। आज
रविवार का दिन था-व्रत,
उपवास और कठोर चर्या का दिन। आज वह आरामदायक पगी पर नहीं सोएगा।
यह
ठीक है कि घर-गृहस्थी का इतना बड़ा दायित्व पूरी तरह अपने सिर पर न लेते
तो भी उस के हिसाब से श्रीकुमार घर के बड़े बुजुर्ग थे। और अगर ऐसा न होता
तो पता नहीं सुकुमार आज कितना निरुपाय होता।
'अब
चली',... 'तब चली' करते-करते नन्दा कुछ दिन और रुक गयी। तय यह हुआ था कि
उसका देवर आएगा और उसे लिवा ले जाएगा। उसका कोई अता-पता नहीं था। आखिरकार
नन्दा खुद जाने को तैयार हो गयी। तब वह रह-रहकर यही कहा करती, ''अरे कहां
गये सब...भई, अब इस आफत को विदा करने की तैयारी करो।''
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