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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


यह तो गनीमत है कि एक आदमी एक दूसरे आदमी के अन्दर झाँककर नहीं देख पाता। अपने बनाने वाले विधाता की सारी निष्ठुरता और सारी गलतियों की अनदेखी कर मनुष्य उसकी इस असीम दया के लिए माफ कर देगा शायद। अपने मन के अन्दर मचलने वाले तूफानों को आदमी अपनी मुट्ठी मैं जकड़ लेता है।

तभी...अलका ने हाथ बढ़ाकर देवेश की बगल से पान की डिबिया को उठा लिया और उससे पान का एक बीड़ा वाहर निकालते हुई वोली, ''उसकी वह तोंद और गंज...। छी छी...में पहचान तक नहीं पायी। सचमुच यह बड़ी शर्म की बात है। क्या करती? उसे पहचान पाने का कोई उपाय ही नहीं था।''

''और मुझे भला क्या पता था?'' देवेश हँसता हुआ बोला, ''मैंने तो उसे कभी देखा तक न था। यह क्या...तुम पान को इस तरह मसलती क्यों जा रही हो? खाओगी नहीं?''

''नहीं, सुख गया है यह।''

सचमुच...बुरी तरह और पूरी तरह सूख गया है। वर्ना क्या यह सम्भव नहीं था कि काम का नुकसान कर थोड़ी देर के लिए किसी का सहयात्री या हमसफर बन जाता? अलका जहाँ जा रही थी...कम-से-कम वहाँ तक?

एक जरूरी काम था। क्या कोई भी काम इतना भी जरूरी हो सकता है?

* * *

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