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कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
डॉट पेन
सुबह से घर-गृहस्थी का काम ठीक-ठाक ही चल रहा है। कहा से भी कोई बेसुरी आवाज नहीं आयी कि शान्ति में बाधा पड़े।सवेरे-ही-सवेरे लोड शेडिंग नहीं हुई (जैसी कि आये दिन हो जाया करती है) वर्ना पानी खींचने वाला पम्प अपाहिज पड़ा रहता। वर्तन माँजने वाली सुधा बाई सुबह के समय आ गयी है। वर्ना ज्यादातर होता यह है कि वह बिना नोटिस दिये गायब हो जाती है। और इसी तरह रसोई की गैस भी सही-सलामत है...वर्ना चाय गरम करने की केटली चढ़ाई नहीं कि वह अक्सर ची बोल जाती है। और ही...असीमा और आनन्दी के बीच हर घड़ी चलने वाली ठण्डी और खामोश लड़ाई अचानक किसी छोटी-मोटी वजह से मुखर नहीं हुई है...जैसा कि जब-तब या कभी भी भड़क उठती है।
कहना चाहिए कि आसमान साफ है और बादलों का दूर-दूर तक पता नहीं है। यहाँ तक कि पराशर और परमेश दोनों के ही धीरज खो जाने के पहले ही अखबार आ चुका है। टुटुन और मिठुन की स्कूल बस घड़ी के काँटे से काँटा मिलाकर दरवाजे पर खड़ी है। स्कूल बैग में किताब-कापियाँ ठूँसकर और माँ के लाड़-दुलार से भरे टिफिन बॉक्स के बोझ से दबे बच्चों को अपनी गोद में उठाकर वह अपनी मंजिल की तरफ कूच कर गयी है।
इसके तुरत बाद ही, पराशर और परमेश का खाना भी मेज पर लग चुका है। होता यह रहा है कि दफ्तर जाने के पहले यह खाना कभी बिना डाँट-फटकार के परोसा नहीं गया है।
अपनी मस्त चाल और सुचारु ढंग से चलने वाले इस संसार-चक्र में अचानक 'खच्चाक', की आवाज सुन पड़ी और डसके साथ ही...झन्नाहट भरा जोरदार स्वर गूँजने लगा।
इसकी वजह तब समझ में आयी जब पराशर और परमेश दफ्तर जाने को घर से बाहर निकलने को ही थे। लीलावती सवेरे से ही घर से गायब थीं। इसकी भी एक वजह थी। लीलावती चाहे जहाँ भी हों और भले ही किसी जरूरी काम में उलझी हों...या फिर पूजाघर में ध्यानस्थ बैठी हों बच्चों के दफ्तर जाते समय 'दुर्गा...जय दुर्गा' करती-करती दरवाजे पर आ खड़ी होती हैं। आज वे दरवाजे पर खड़ी न थीं।
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