कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
आदत से मजबूर देवेश
मजाकिया स्वर में यह कहने ही जा रहा था, 'देखा तो नहीं लेकिन वैसी की टेर
तो सुनी है।'...लेकिन कुछ कह न पाया।
इस बीच गाड़ी की सीटी बज
उठी।
रेलगाड़ी श्रीरामपुर
स्टेशन पर लग रही थी।
सिर्फ
एक मिनट का ठहराव। गाड़ी के प्लेटफार्म पर लगते ही अशोक उठ खड़ा हुआ और उसने
जल्दी से हाथ जोडकर कहा, ''अच्छा...नमस्कार। आपके साथ मुलाकात हुई...बड़ी
खुशी हुई...अच्छा तो अलका...मैं चलूँ। काफी दिनों बाद भेंट हुई...है न?''
और भला आदमी तेजी से नीचे उतर गया।
इसके
साथ ही गाड़ी चलने लगी थी।...और इसकी चाल के साथ ही पल भर मैं ही कलेजे में
टीस पैदा करते रहने वाले संगीत की एक सुमधुर गूँज खामोश हो गयी। एक वाली
थम गया वह स्वर।
रंगमंच
पर अभिनय के साथ पार्श्व में बजते रहने वाले संगीत की तरह। अलका के जीवन
के नेपथ्य में बजने वाला वह अनाहत सुमधुर संगीत, जिसने उसके जीवन को बड़ी
खूबसूरती से एक छन्द में पिरो रखा था, हमेशा-हमेशा के लिए थम गया।...बल्कि
वह छन्द ही बीच से टूटकर बिखर गया।
नहीं...अब
वह स्वर कभी नहीं बजेगा। वह छन्द फिर लौटकर नहीं आएगा। 'एक बार भेंट तक
नहीं हो पायी...'क्षण भर एक गहरी आह भरने की जो खुशी थी...वह भी छिन गयी।
'शायद...कभी...किसी
दिन...कहीं भेंट हो जाएगी, 'ऐसी उत्तेजना भरी आशा भी खत्म हो गयी।
हाय...यह जरूरी नहीं था
कि इस एक बार और भेंट हो ही जाती। अगर यह मुलाकात नहीं होती तो क्या कुछ
बिगड़ जाता।
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