कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
और नहीं...अशोक ही है।
इतनी देर तक...सामने बैठकर भी समझ नहीं पायी...उसके चेहरे की तरफ ताकती
रही फिर भी ताड़ न पायी।
क्या अशोक उसे समझ पाया?
फिर
इस संसार में किसी का क्या बिगड़ जाता अगर अशोक अलका को नहीं पहचान पाता।
अलका के साथ कोई मोटा या महान मजाक नहीं भी करता तो इससे उसके
भाग्य-विधाता का क्या आता-जाता? अशोक अगर ऐसा कुछ न कहता तो इससे उसका
क्या बिगड़ जाता?
''अरे...अलका...तुम?''
''अशोक दा...। तम?'' मीठी
मुस्कान के साथ उत्तर।
रेलगाड़ी की भीड़ और
हिचकोले के बावजूद अलका ने नीचे झुककर अशोक को नमस्कार किया।
''अशोक दा!''
देवेश की आँखें-फटी की
फटी रह गयीं, ''अरे...सच...आप ही वह सुविख्यात अशोक दा हैं?''
''सुविख्यात...या
कुख्यात...? बात क्या है?''
''लीजिए...गजब
हो गया महाशय। आपको लेकर तो हम लोग...छी...छी...अलका...आखिरकार तुम ही हार
गयी। आप समझे जनाब! आपकी बचपन की सखी अभी मेरे साथ-नहस कर रही थी कि अशोक
दा भला इतने गंजे हो सकते हैं...कभी नहीं। लेकिन मुझे तो पहले से ही यह शक
था...कि...''
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