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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''दया...? अच्छा...!'' श्रीकुमार ने तिलमिलाते हुए लेकिन धीमे स्वर में कहा, ''तो फिर मेरे ऊपर तरस खाकर ही...''

''नहीं। अब तुमसे में वहस नहीं कर पाऊँगी। मैं तंग आ चुकी हूँ इन सबसे। तुम क्या मेरे लिए एक जीव मात्र हो? या मेरे शिद हो। बताओ। तरस खाती हूँ उस बेचारी के ऊपर...तुम्हारी वही प्राण चातकी विरहिनी चिराश्रय-प्राथिनी पर...और भी न जाने ढेर सारी प्यारी-दुलारी सब...बताते क्यों नहीं अब! क्या याद नहीं आ रहीं वे सब-की-सब, जो तुम्हारी चाह में आँखें फाड़े राह ताक रही हैं?''

बहुत पहले, नये-नये ब्याह के तुरन्त बाद ही, संयोगवश, इसी आशय का एक पत्र अपर्णा के हाथ लगा था। और वह आसमान से सीधे जमीन पर आ गिरी थी। लेकिन तब भी, अपर्णा ने इस बात को सबसे छिपाये रखा। उसने सारे मामले को अपनी मुट्ठी से बाहर फिसलने नहीं दिया।

पिछले अठारह वर्षों से उसी अनुशासन में, श्रीकुमार की सारी चर्या ढल गयी है। वे सुखी, सन्तुष्ट और आभारी हैं। उन्हें इसका ध्यान नहीं कि उनकी उम्र इतनी आगे खिसक चुकी है या उनके बारे में कोई सोचता रहा है।

लेकिन उस चिट्ठी का एक-एक शब्द आज भी अपर्णा के कानों में वज उठता है और वह अब भी उसके प्रति चौकस बनी हुई है। और जब भी जरूरत पड़ती है, उसका हवाला देकर पति को परेशान किया करती है।

श्रीकुमार एक मिनट तक चुप रहे होंगे। लेकिन उन्होंने फिर गम्भीर स्वर में पूछा, ''क्या तुम समझती हो अपर्णा, कि मैं तुम्हें सचमुच कष्ट पहुँचाना चाहता हूँ? तुम्हें इस वात का विश्वास होता है कि मैं तुम्हारा जी दुखाकर यह सब करना चाहता हूं।"

''अब आधी रात को तुम्हें पागलपन का दौरा पड़ा है।''

''नहीं। तुम अब बात को छिपाओ मत। ठीक-ठीक बताओ कि आखिर क्या...'' अचानक अपर्णा के होठों का रचाव बदल गया। सचमुच? वे इतने तरल और कँपते हुए क्यों दीख रहे हैं!

''विश्वास हो जाएगा...क्या इस पर तुम्हें विश्वास है?''

''नहीं। और तभी तो तुम्हारी ओर से इतना निश्चिन्त रहा हूँ अपर्णा! लेकिन तुम मुझ पर बीच-बीच में दबाव क्यों नहीं डालतीं? क्यों नहीं तुम मुझ पर पूरी तौर से अपना अधिकार जताये रखना चाहती हो? आखिर मुझ पर तुम्हारा पूरा हक है।''

''अच्छी मुसीबत है! क्या मैं जान-बूझकर यह पागलपन कर रही हूँ? श्रीमान जी, किसी पेड़ के ऊपर अपना हक जताने 'के लिए उसकी जड़ों को खोद डालना बुद्धिमानी की बात है? मैं सारा कुछ अपनी मुट्ठियों में भींच लूँ, ऐसी राक्षसी भूख मेरी नहीं।...लेकिन यह सब सोचकर क्या होगा आज? सोना-बोना नहीं है आज क्या? कल सुबह महराजिन नहीं आएगी। अब छोड़िए भी श्रीमान जी और सो जाइए...बहुत काम है।''

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