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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


इस बात में सन्देह नहीं रहा कि कहीं देखा है जरूर। वैसा ही गोल-गोल चेहरा...सलोना-सा...लेकिन उस पर यह गंज?

काफी याद करने पर भी वह कुछ याद नहीं कर पा रही थी।

लेकिन तो भी जी में कुछ खटका-सा लगा रहा। बायीं भौंह के ऊपर उजले से कपाल पर वैसा ही काला-सा तिल? कुछ परिचित-सा नहीं जान पड़ता? ऐसा ही चेहरा और कहीं...किसी के यहाँ देखा भी है?

देवेश की चुलबुलाहट शुरू हो गयी, ''पान वाली डिबिया तो साथ लायी ह न...?"

''अपनी जेब में हाथ देकर देखा।"

''और जर्दा?''

''पता नहीं....। अपनी चीजें तुम ठीक से सहज नहीं सकते?''

''अरे वाप रें....एकदम फौजी मिजाज है। आखिर गयी कहाँ? देखा न....तुमने मेरी बात नहीं सुनी? एक बात कहूँ....उस भले आदमी के सूटकेस पर लिखा है....ए... मुखर्जी।''

मुखर्जी!

अलका जैसे? मन-ही-मन चिहुँक उठी। और इसके बाद पूरी गम्भीरता से दोहराती रही.... अजित... अमल.... अवनी.... असित.... अपूर्व.... अनिमेष.... और.... भी.... अगड़म....अटकल....न जाने क्या-क्या....।

अ से शुरू होने वाले इन ढेर सारे नामों में से किसी एक नाम का अधिकारी तो किसी मुखर्जी परिवार में ही जन्म ले सकता है और अपनी सूटकेस पर 'ए... मुखर्जी' नाम लिखवाकर घूम सकता है।

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