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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


बात यह है कि देवश घड़ी भर को चुप नहीं रह सकता। अलका गुमसुम बैठी रहे, यह उसे पसन्द नहीं। बात को आग बढ़ाने लायक कोई नया मुद्दा है नहीं इसीलिए पुरनिा बातों पर हँसी-मजाक को खींचा जा रहा है।

अलका उसे झिड़क देती है, ''इससे उसका क्या? उसका चेहरा देखकर तुम्हें कौन-सा पुरुषार्थ प्राप्त हो जाएगा?''

''मुझे भला क्या लेना-देना!'' देवेश की मुख-मुद्रा करुण हो आयी, ''सम्भव है इससे तुम्हारा ही कोई फायदा हो जाए। कहा गया है न...'कब से परिचित चेहरा तेरा लगता फिर भी अनजाना।'...मैं यही सोच रहा था''...

''मैं कह रही हूँ चुप भी रहो। ऐसी उल्टी-सीधी बात मत करो। तुम्हैं कुछ होश नहीं रहता कि कब और कहाँ कैसी बातें करनी चाहिए।...मेरे तो तन-मन में आग-सी लग जाती है।''

हालाँकि ये सारी बातें दवी जुबान हो रही थीं।

अखबार के पाठक ने इस बीच अखबार को उल्टा और तहाकर छोटा कर लिया था। लेकिन परे नहीं रखा...आगे पढ़ना शुरू कर दिया। अब उसमें झुके हुए चेहरे का अधिकांश दीख पड़ रहा था।

अलका ने उसकी तरफ एक बार देखा और फिर अपनी आँखें फेर लीं। अगले ही क्षण देवेश चुटकी लेना शुरू करेगा। सचमुच...एक बार अच्छी तरह से देखकर भी यह सोचने का अवकाश कहाँ मिला कि इस आदमी को कहीं देखा है...देवेश को इस बात से परेशान होने की नौबत नहीं आयी। हालाँकि उसे अव ऐसा लगने लगा है कि उसने कहीं उसे देखा तो नहीं है।

कब...?

कहाँ?

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