कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''यह दीख भी कहीं रहा
है...चाँद-सा चेहरा तो अखबार में बन्द है।''
''तो
भी...हाथ-पाँव-माथा-भौंह...ये सब जैसे पहचाने-पहचाने जान पड़ते हैं।''
''ध्यान सै देखो...क्या
पता....तुम्हारे 'वही' अशोक दा ही न हों''-देवेश ने वही अपनी पुरानी मीठी
चुटकी भरी मुस्कान भरी।
अलका
ने आहिस्ते से कहा, ''लगता है....ठीक ही कह रहे हो। वह गंजा-सा बूढ़ा भला
अशोक दा होगा। उसे फिर कभी देख ही नहीं पायी। मेरा नसीब ही ऐसा है। कैसे
खूबसूरत बाल थे उसके? रेशम जैसे। मैं क्या उसके प्रेम में ऐसे ही पड़ी थी?''
''तुम क्या समझती हो उसके
काले घुँघराले रेशमी बाल अब भी सही-सलामत है।''
''और नहीं तो क्या....सर
एकदम चटियल मैदान हो जाएगा। मारे जलन के तुम ऐसा ही सोचोगे....और क्या?''
थोड़ी देर तक चुप्पी बनी
रही।
देवेश तो जैसै छटपटा रहा
था। वह बोल उठा, ''अच्छा....एक बार उससे अखबार तो माँगकर देखो।"
थोड़ी देर तक फिर खामोशी
छायी रही। अलका रह-रहकर अचानक ही कुछ कह बैठती थी। पता नहीं क्यों....वह
इतना ऐंठा क्यों है?
समय बीता तो फिर उसने
उखड़ी हुई टिप्पणी की...'' आखिर ऐसी कौन-सी आफत आ पड़ी है अखबार में?''
''अरे तुम समझ नहीं रहीं?
अखबार हटाने पर उसका चेहरा तो पूरी तरह से दीख पड़ता।''
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