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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


निःसन्तान पति-पत्नी। हर जगह...साथ-साथ जाना-आना लगा रहता है। देवेश की ममेरी बहन की शादी के मौके पर सबेरे वाली गाड़ी से दोनों चन्दन नगर जा रहे थे। दूसरे दर्जे के एक डब्बे में सामान वगैरह सहेजने के बाद देवेश ने अलका से पूछा, ''हां जी....उनकी शादी में दी जानेवाली साड़ी तुम कहीं घर पर ही तो नहीं छोड़ आयी?''

''हां...यह तो वहीं रह गयी।''

''हो गया न कबाड़ा....। अब क्या होगा....तुम्हीं बताओ?''

''ढेरों उपाय हैं। चन्दन नगर तो वैसे भी ताँत की साड़ी के लिए मशहूर है।''

''इसका क्या मतलब हुआ...वहाँ जाकर फिर एक साड़ी खरीदनी पड़ेगी?''

''अब जब गलती से रह गयी तो खरीदनी ही पड़ेगी।...लेकिन तुम उस बात को छोड़ो। मैंने तुमसे अखबार साथ लाने को कहा था....तुमने लिया था? वह लिया नहीं। मुझे पता था। सारी गलतियाँ तो मैं ही करती हूँ।''

ये दोनों कोई नये शादी-शुदा तो हैं नहीं कि लोग इनकी बातों को ध्यान से सुनें या इन्हें कौतूहल भरी नजर सें देखें। किसी ने देखा तक नहीं। लेकिन चूँकि बात अखबार की की गयी थी इसलिए उन दोनों के सामने जो सज्जन अखबार में अपना सिर दिये बैठे थे, उन्होंने अपने अखबार को एक बार तह किया....फिर लम्बा किया और फिर हिल-डुलकर उसी में डूब गये।

लगता है, वह यह सोच रहे थे कि वात अखबार की चली है, कहीं माँग न बैठें। उनका चेहरा साफ दीख नहीं रहा....इसलिए तेवर का पता नहीं चल रहा। अखबार के ऊपर से दीख रहा है, भौंहों के ऊपर तेल से चिकनाया गया एक चाँद।

पति और पत्नी के बीच अब भी रुक-रुककर दबी जुबान में बातें हो रही हैं।

''लगता है इस आदमी को कहीं देखा है...कहां?''

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