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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''वाह...वाह...'' अलका ने छूटते ही कहा, ''तुम्हारी कल्पना-शक्ति बड़ी प्रखर है! मैं अपने पहले प्यार को भले ही भूलकर निश्चिन्त हो जाऊँ लेकिन तुम उसै भूल नहीं सकते। है न!''

''भला कैसे भूल सकता हूँ"...देवेश बहाने बनाता और गहरी साँस लेकर कहता, ''क्या करने...कलेजे में नटसाल जो किरकती रहती है।''

देवेश ऐसा सरफिरा नहीं है कि अपने से आठ साल छोटे और हमेशा से ही अनुपस्थित एक बालक को अपना प्रतिद्वन्द्वी समझ लेने की गलती कर बैठे। और अलका भी पागल नहीं है। लेकिन क्या इस बात में कोई सच्चाई नहीं है कि मेले की भीड़ में और हजार-हजार की भीड़ में वह वहीं खो गया चेहरा नहीं ढूँढ़ा करती? राह चलते....अचानक उसके पाँव नहीं रुक जाते। सिनेमा या नाटक से लौटते समय क्या वह नहीं कहा करती है..."थोडी देर को रुको....जरा भीड़ छँट जाए'' और सीढ़ी के एक ओर चुपचाप खड़ी-खड़ी एक-एक आदमी को बड़े ध्यान से निहारा नहीं करती है।

देवेश अगर देर होने की शिकायत करता तो वह जवाब देती, ''दो-चार मिनट में ऐसा कौन-सा पहाड़ टूट पड़ेगा। मैं इस धक्कमपेल को नहीं झेल सकती।''

एक नशा ही है....और क्या?

यह तो मुमकिन था ही कि घर-गृहस्थी के हजारों बन्धन में पड़कर यह नशा कब का हिरन हो चुका होता, लेकिन ऐसा मौका मिला कहीं? बच्चे-कच्चे हुए नहीं। जीवन का चेहरा और ढर्रा बहुत बदला नहीं...वह एक-जैसा ही रह गया।

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