कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
हो
सकता है....ट्राम पर बैठी अलका अपनी ननद के यहाँ अलीपुर जा रही हो...सम्भव
है एक तरफ की भीड़ छँट गयी हो और देवेश अचानक ही एकदम हौले से बोल उठे,
''देखो....वह....उस आदमी के पास खड़ा आदमी तुम्हारे अशोक दा तो नहीं? कब से
देख रहा हूँ...तुम्हारी तरफ मुँह बाये खड़ा है।"
अलका
चौंककर उधर देखने लगती है। उसके सीने में आशा का तूफानी ज्वार-सा उठता
है।...लेकिन दूसरे ही क्षण वह अपनी त्योरी चढ़ाकर कहती है, ''किसी भले आदमी
की तरह अपनी बातों में थोड़ी-सी सचाई और सादगी लाना तो सीख लो।''
''ठीक
है...वैसे यह मजाक बुरा नहीं है। मैं ठहरा असभ्य और जंगली...है न! और वह
आदमी जो लगातार तुम्हारी तरफ घूरे चला जा रहा है...वह बड़ा भला है। मैंने
सोचा, हो सकता है वही तुम्हारा 'वो' हो। अगर वह 'वों' न होता तो इस तरह
ताक नहीं रहा होता।"
अलका
अपनी हँसी को रोकती हुई गम्भीर स्वर में कहती है, ''दरअसल मेरे घर से बाहर
निकलने पर लोगों को बड़ी हैरानी होती है और वे मेरी तरफ मुँह फाड़ देखे बिना
रह नहीं सकते। आखिर वही तो हैं जो अपना बड़प्पन बनाये हुए हैं जबकि मेरा
'वो' ऐसा नहीं है।''
''इस दौरान तुम्हें पता
भी है...तुम्हारा 'वो' क्या से क्या हो गया हो।''
''रुको भी...ज्यादा बकबक
मत करो। वह आदमी देख रहा है।''
इसी तरह किसी पूजा-मण्डप
या ऐसे ही किसी समारोह-स्थल में या भीड़-भाड़
में
अगर अलका आँखों सें ओझल हो गयी हो...या कि देवेश थोड़ा आगे बढ गया या सम्भव
है दोनों ही एक-otसरे को ढूँढ़ रहे हैं....आगे-पीछे। और जब मुलाकात हो गयी
तो देवेश मस्ती में यह बोल बैठा, ''ओह....जान बची। मैं तो यही सोच रहा था
कि मेल की भीड़ में अचानक तुम्हें अपना 'पहला-पहला खोया प्यार' मिल गया है
और तुम मुझसे किनारा कर उसके साथ 'सटक सीता राम' हो गयी हो।''
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