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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


इसमें बुराई क्या है?

''सचमुच...आखिर इसमें क्या बुराई है? चले चलते हैं। इतना तो तय है कि अशोक की बीवी क्या तुम्हें पीट नहीं देगी!''

यह राय अलका के पति देवेश की है। अलका के हृदय में अशोक के लिए जो कमजोरी रही है...देवेश को इस बारे में पता है। अपनी कच्ची उम्र में ही पति के प्रति पूरा विश्वास रखते हुए उससे एक बचपना हो गया था और अलका ने अपने प्रथम प्रेम की रंगीन कथा के बारे में देवेश को बता दिया था। और साथ ही यह आक्षेप भी करती रही थी, ''हैरानी की बात नहीं...उस आदमी के साथ फिर कभी भेंट तक नहीं हुई?''

अभी भी जब कभी उसकी बात चलती है तो वह कहती है ''जो भी कहो...अब भी उसके साथ एक बार मिलने की इच्छा मेरे मन में जरूर है।''

और यह बात कभी-कभार उठ ही जाती है।

देवेश भी इस मामले में अलका को छेड़ता रहता है। अशोक दा नाम देवेश के लिए एक चलता-फिरता मुहावरा बन गया है। अगर वह कभी खिड़की या बरामदे पर देर-अबेर खड़ा दीख जाती तो वह उसे कुरेद देता, ''बात क्या है...रास्ते पर अशोक दा तो नहीं खड़े? दो नयन गड़े वातायन पर....कव सै अपने साजन पर...''

अलका गुस्से में भरकर वोलती, ''हां, बात वही तो है। वह रोज इसी घड़ी चिलचिलाती धूप में फुटपाथ पर आकर खड़ा हो जाता है।....और मैं दया और करुणा की मूर्त बनी उसे दर्शन देती हूँ।"

रास्ते में...ट्राम या वस पर आते-जाते गाहे-व-गाहे अलका को चिढ़ाना देवेश के लिए एक दिलचस्प-सी चीज हो गयी है। हालाँकि देवेश...अलका पर हावी नहीं हो पाता लेकिन उसे छेड़ना नहीं छोड़ता। उन दोनों के इस स्वच्छन्द दाम्पत्य जीवन में अशोक को भी एक भूमिका मिली हुई थी। हालाँकि तह ऐसी कोई विशिष्ट नहीं थी लेकिन अपरिहार्य भी नहीं थी।...ठीक वैसी ही और उतनी ही जितनी कि भोजन में थोड़े-से नमक की और पान में चूने की होती है। कभी किसी वातचीत, छेडु-छाडु को थोड़ी-सी दिलचस्पी बढाने या बनाये रखने के लिए। और जितनी की जरूरत है, उससे थोड़ा-सा भी ज्यादा व्यवहार करने की कोई इच्छा भी नहीं है।

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