कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
|
5 पाठकों को प्रिय 3465 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
यौवन
के नये-नये उत्साह से तारुण्य छलकता रहता है और यौवन की परिणति अनिवार्य
तौर से गम्भीरता में हो जाती है।...और अब आज की...चालीस साल वाली अलका में
उस चौदह साल वाली बेवकूफ-सी अलका की तलाश करना उससे भी बड़ी बेवकूफी
होगी। उसका नाम 'अलका' था...यह बात भी अब किसी के मन में सहज ढंग से नहीं
आती होगी। खुद उसके मन में भी नहीं। और नाम लेने-देने की जरूरत भी किसे
पड़ी है।
लेकिन तो भी एक छोटा-मोटा
पालगपन तो रह ही गया है।
आखिर
इतने दिनों का...एक बेमतलब-सा ही सही...अभ्यास जो ठहरा। गाहे-ब-गाहे और
नामालूम ढंग से इस बात की एक अछूती-सी याद...''उससे कभी मुलाकात नहीं हो
पायी।''
है न...सचमुच एक अजीब-सी
बात।
सोचते
हुए भी अलका को बड़ी हैरानी होती है। समय के इस लम्बे अन्तराल में
कभी...किसी दिन क्या कभी भेंट नहीं हो पाएगी? भाषा की दुनिया में
अप्रत्याशित...आकस्मिक.. सहसा...हठात्...अचानक जैसे शब्द आखिर हैं किसलिए?
क्या किसी के साथ अकस्मात् भेंट नहीं हो जाती?
बहुत-से
ऐसे लोगों के साथ जो थोड़े-बहुत परिचित हैं, चाहे-अनचाहे भेंट हो जाया
करती है, जो वर्षों से नहीं दीखे या मिले...अचानक...बसों में, ट्राम में,
सिनेमा हॉल में, सार्वजनिक पूजा-स्थलों में, दूकानों-पार्कों में, स्टेशन
में, शहर के बाहर...। लेकिन वही एक चेहरा...दुर्लभ हो गया? पिछले छब्बीस
वर्षों के दौरान उस आदमी की छाया तक आँखों में नहीं पड़ी। और सबसे हैरानी
की बात यह है कि दोनों एक ही शहर में रहते हैं। अगर कोशिश की जाए तो
पता-ठिकाना भी प्राप्त किया जा सकता है। उसका पता जुगाड़कर अचानक उसके घर
हमला बोल दिया जाए और पूछा जाए...क्या बात है अशोक दा...एकदम बिसरा ही
दिया...अपने मन से!
|