कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
दरअसल
बात यह है कि इसके बाद उन दोनों मैं फिर कभी मुलाकात ही नहीं हुई। दुनिया
और दुनियादारी के जटिल जीवन-चक्र मैं एक चौदह-पन्द्रह साल की लड़की और एक
अठारह साल का लड़का अपनी कोशिशों के बावजूद कभी आमने-सामने नहीं हो सके।
दोनों
के ही मकान-मालिक ने इन दोनों मकानों को, मोटी रकम पाकर, किसी
इम्प्रूवमेण्ट ट्रस्ट के हवाले कर दिया। दोनों ही किरायेदार एक-दूसरे से
छिटककर शहर के दो विपरीत छोरों पर जा बसे।
अशोक के बारे में तो कुछ
पता नहीं चला।
हां,
अलका के बारे में मालूम है। उसके पिता खिदिरपुर डेक के आस-पास एक छोटे-से
घर में आ गये थे। और यहाँ आते ही उस आदमी के तो जैसे नसीब ही खुल गये।
पानी में डूबे एक जहाज को पानी के दाम खरीद लिया। और उसी पानी ने उसकी
सारी रामकहानी ही बदल दी। बड़ा-सा मकान खरीटा गया। नयी चमचमाती गाड़ी आयी और
बेटी का बड़े ही धूमधाम से विवाह किया गया।
विवाह
की रात उस छोरवाले भी दावत खाने आये। सिर्फ अशोक ही नहीं आया। उसकी बी. ए.
की परीक्षा चल रही थी। उसे दावत खाने जैसे वाहियात काम पर जाने की फुरसत
कहीं? चौबीसों घण्टे पढ़ता रहता है-कमरे की सिटकनी चढ़ाकर।
'विवाह
के दिन अशोक से मुलाकात होगी,' ऐसी एक आशा अलका अपने मन में सँजोये हुई
थी। उसके हृदय के आकाश में यह उजला-सा तारा टिमटिमाता रहा था...शादी की
रात तक।
अशोक दा के साथ भेंट नहीं
हो पायी...। निराशा के घने बादलों के साथ उसके दाम्पत्य जीवन की शुरुआत
हुई।
पति सुन्दर था और स्वभाव
का उदार।
प्रेम,
उदारता और क्षमा में उसकी कोई सानी नहीं। प्रसन्न मुख और सुदर्शन और
हँसने-हँसाने में बेजोड़। नयी-नवेली युवती पत्नी का हृदय किसी भी तरह के
संशय से मुक्त था और सुख-भरे सोहाग से उसका जीवन आलोकित हो उठा था।
बस...नीले आकाश के एक कोने में हल्के उदे बालकों की तरह ही उसके मन में भी
निराशा के बादल छाये रहे।
साल-पर-साल बीतते चले गये।
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