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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''कैसे नहीं समझती? खूब समझती हूँ...भगवान ने सारी-की-सारी बुद्धि तुम्हें ही नहीं सौंप दी है?''

''खैर, मेरी तो यही राय है...वैसे अगर बता सकती हो तो...अच्छा यह पढ़कर बताओ...जरा मैं भी तो देखूँ तुम्हारी सूझ और समझ।''

खुले हुए पन्ने की तरफ देखते ही अलका का चेहरा दिख गया। उसकी जुबान पर जैसे ताला लग गया।

''क्यों...क्या हुआ...? तू पढ़ नहीं पा रही? तू तो ठहरी भारी विदुषी। जो पढ़ना तक न जाने वह माने क्या जाने...खाक। अब मैं समझ गया दिन में दो-दो किताब निचोड़ फेंकने का सारा करिश्मा। आँखें दौड़ा लीं.. बस...यही न। अच्छा तो ले...मुझसे सुन...मैं तुझे इसका मतलब समझा देता हूँ। कवि कहता है-

बस तुमको ही चाहा मैंने
शत रूपों में शत-शत बार
पिछले कई-कई जनमों में
युगों-युगों से कितनी बार...1

...अलका में इतना साहस नहीं रह गया था कि वह सारी-की-सारी पंक्तियों को सुने और इनके माने गुने।...बेचारी अलका...चौदह-पन्द्रह साल की। दौड़कर नीचे भागी।

चौदह-पन्द्रह साल की नायिका की बात सुनकर हँसनेवाली कोई बात नहीं है। हालाँकि यह घटना इस जमाने की नहीं, उस दौर की है। तब सिर्फ तेरह साल की ललिता2 अपनी कमर में चावी का गुच्छा खोंसकर पाठकों का हृदय जीत लिया करती थी।

हालाँकि ऐसी सुविधा और सुयोग सबको नहीं मिल पाते।

''इसी जनम में युगल मिलन बिन मिथ्या होगा जीवन''-जैसी अजीबो-गरीब बात के बारे में दोनों में से किसी ने कभी नहीं सोचा था।...दोनों ही एक-दूसरे के विरह में सारा जीवन खामखाह गहरी साँसें और लम्बी आहें भरते रहे...ऐसी झूठी बातें ।
इन पंक्तियों की लेखिका भी नहीं लिख सकती।
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1 तोमारेई जेन भालोवासिया छि....शत रूपे शत बार
के जुगे अनिवार। चिरकाल धेर....(-रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

2. ललिता : रवीन्द्रनाथ की प्रसिद्ध नायिका।

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