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कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
रात
को पति-पत्नी दोनों बैठे थे....पलँग पर पाँव लटकाये। श्रीकुमार ने पत्नी
का चेहरा अपनी ओर मोड़कर कहा, ''मुझे काम का आदमी बनाने की कोशिश क्यों की
जा रही है?''
''ठीक ही तो किया।
निकम्मे का भी कोई मान है भला?''
''कोई दे न दे...एक ने जो
मान दिया है वही बहुत है।''
''अरे वाह...वह भी क्यों
मान देने लगा? आखिर उसका भी क्या सम्मान है? और इतना कहकर वह अपमान की आग
में...''
''क्या हुआ?'' श्रीकुमार
हैरान रह गये, ''आखिर रुक क्यों गयी तुम...बात क्या है?''
''कुछ भी नहीं। चलो, उधर
हटा, सोना है।''
श्रीकुमार ने थोड़ा सरकते
हुए जगह बना दी। लगभग एक मिनट की चुप्पी के बाद उन्होंने गम्भीर स्वर में
पुकारा, ''अपर्णा...!''
उसको हाथ लगाने का साहस
जुटा न पाये इसीलिए अपर्णा के माथे पर हाथ रखकर फिर पुकारा,''अपर्णा...!''
"हुँ....उ"
''सच
बताना अपर्णा, क्या तुम अपने को अपमानित महसूस करती हो? तो फिर इस बारे
में तुमने कभी कुछ कहा क्यों नहीं? मैं तो न जाने कितने दिनों से नशे की
इस बुरी लत को छोड़ना चाह रहा था लेकिन तुम इस बात को हँसकर उड़ाती रहीं।
यही नहीं, खुद अपने हाथों से मुझे सजा-सँवार, उस तरफ झोंक देती हो। आखिर
तुम ऐसा क्यों करती हो? क्यों सँवारती हो मुझे इतना?''
''क्या कह रहे हो?''
अपर्णा
सोने का बहाना छोड़कर उठ बैठती है। उसके होठों पर वही अनदेखी धार चमक उठती
है। उसने कहा, ''क्यों करती हूँ यह सब? यह तुम पूछ रहे हो? जीवों पर दया
किया करो-लोग ऐसा कहते हैं कि नहीं...''
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