कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
उसकी चुटिया खींचने के
लिए ही अशोक छत पर जा पहुँचा था।
''अरे...तुम।'' अलका की
खुशी का ठिकाना न था, ''तुम अचानक छत पर!"
अशोक ने गम्भीर स्वर में
कहा, ''क्या करूँ? भूतिया बेताल जो बना दिया गया हूँ।''
''यह सब क्या अनाप-शनाप
बक रहे हो'' अलका ने झिड़क दिया, ''जो जी में आता है...।''
''मौसीजी
तो यही कहती हैं...और ठीक ही कहती हैं। मति है...गति है...आँखें हैं।
लेकिन उनके हिसाब में थोड़ी-सी कसर रह गयी है। भूत-बूत नहीं...बल्कि
चुड़ैल।''
''ओह...''
अलका परेशान-सी दीखी और उठ खडी हुई। इस छोटी-सी और बहुत ही सामान्य
हँसी-मजाक से भी वह भयभीत हो गयी थी।? दरअसल अशोक अपने होठों से ही नहीं,
अपनी आंखों से भी वही बातें कह रहा था।
आँखों
की भाषा बहुत बड़ी होती है...वह पल-भर में सामान्य को 'असामान्य' बना देती
है। है कि नहीं! और आँखों की अनदेखी करने की वजह से ही होठों पर इतनी-इतनी
बातें रखी गयी हैं। फिर बातों का बतंगड़ होता है और उसकी ओट ली जाती है।
ऐसा नहीं था कि डर अशोक
को नहीं था। और ऐसा न होता तो ऐसी बोलती-बोलती आँखें बिना कुछ कहे ऐसे ही
चुप न हो जातीं।
अलका
छत पर चटाई बिछाकर और कुछ नहीं...किताब ही पढ़ रही थी। अचानक उठते हुए उसकी
गोद में रखी किताब नीचे गिर गयी...। रवीन्द्रनाथ की चयनिका।
''क्या
पढ़ रही थी? अच्छा...काव्य।'' अशोक ने किताब को जल्दी से उठाया और फिर बीच
से खोलते हुए उसने बड़े ही सेब से पूछा, ''इन कविताओं के माने भी समझती
हो?''
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