कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''अरे
जाएगी कहां?'' अलका की माँ ने कुढ़ते हुए कहा, ''शाम हुई नहीं कि मजाल है
बेटी की चोटी कहीं दीख जाए। वहीं छत पर जाकर बैठी हुई है।''
''सारा
गुड़गोबर कर दिया...'' अशोक ने कहा, ''अब छत पर कौन जाएगा बाबा...। बैठी
रहे...उसकी किताब नहीं आनेवाली। मारे गुस्से के जान दे देगी...और क्या?
अलका...अरी ओ अलका!''
यह बताने की जरूरत नहीं
कि उसकी पुकार अलका के कानों तक नहीं पहुँची।
अशोक
ने अपना रुख फिर सहन की तरफ किया और कहा, "उसे इस घड़ी छत पर बैठने की क्या
जरूरत है? खाना-वाना पकाना, सब्जी काटना...यह सारा काम आपको ही करना पड़ता
है? आप बेटी को घर का कोई काम नहीं सिखातीं?''
''अलका
और घर का कोई काम? फिर तो उद्धार ही हो जाए।'' और इस बात की किसी भी
सम्भावना को छिन्न-भिन्न करते हुए अलका की माँ अपनी बिटिया रानी को बुलाने
लगी, ''अरी ओ कलमुँही...उतर भी आ छत से। अशोक आकर कब से खड़ा है। एक
लिस्ट-विस्ट क्या कुछ देना है तुझे...आकर दे जा। अलका...! अरी.. तू अब भी
बहरी बनी बैठी है, कुछ सुन नहीं पा रही?''
अशोक
ने कहा, ''इसमें उसकी कोई गलती नहीं है, मौसी! खींच-तानकर तीस-चालीस
किताबों की लम्बी-सी लिस्ट बनाकर वह एकदम निश्चिन्त होकर बैठी है। उसे पता
है कि मेरे आने भर की देर है। पता नहीं, एक ही दिन में दो-दो किताबें कैसे
चाट जाती है?''
''जुगाड़
हो जाए तो चाटेगी कैसे नहीं।'' अलका की माँ कहती है, ''तेरे जैसा भूतिया
बेताल जो मिला है।...मैं कह रही थी...अरी ओ अलका...ठहर, ये रोज-रोज छत की
मुँडेर पर इतमीनान से बैठे रहनेवाली आदत निकालती हूँ मैं।''
अशोक
ने कहा, ''आपकी यह कमजोर-सी आवाज तिनतल्ले तक नहीं पहुँचेगी, मौसी! आप
खामखाह परेशान हो रही हैं। जब तक उसकी चुटिया पकड़कर घसीटते हुए नीचे नहीं
लाया जाएगा...वह उतरेगी नहीं।''
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