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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''आये बिना रह पाएगी?'' अशोक छेड़ता।

''क्यों नहीं रह पाऊँगी....। घर में काली सिंह वाली महाभारत पड़ा है, बैठी-बैठी पढ़ती रहूँगी।''

''ठीक है....ठीक है''....अशोक उसकी खिल्ली उड़ाता हुआ कहता, ''ईश्वर ने

तुझे इतनी सुबुद्धि भी दी है...यह जानकर बड़ी खुशी हुई। और सच भी है...खामखाह ढेर सारे उपन्यास और नाटक पढ़ने की क्या जरूरत है...पागल होना है। 'परिणीता'...'परिणीता' रटती हुई कैसी जान देने को आमादा थी...वही जानलेवा उपन्यास ले आया था...मारो गॉली...वापस लौटा दूँगा।''

बस...इसके बाद कुछ रुक नहीं सकता। और अलका हाय...हाय कर उठती, ''ओ माँ...तुम भी बड़े शरारती लड़के हो, अशोक दा...। तुमने उसे छिपा रखा है,'' और यह कहती हुई उस पर झपट पड़ती और उसे नोचना-खसोटना शुरू कर देती। ऐसी कोई भी जगह नहीं छोड़ती थी...जहाँ उसके मिलने की गुंजाइश हो सकती थी। इस छानबीन के दौरान तमाम बिखरी चीजों को सहेजने में उसे ही घण्टा भर परेशान होना पड़ता था।

ये सारी घटनाएँ घर के अभिभावकों की अनुपस्थिति में ही घटती हों...ऐसा भी नहीं था। घर के लोग इन चुहलों को हल्के-फुल्के ढंग से ही लेते थे।

हालाँकि ऐसा भी नहीं था कि उन लोगों के सामने न रहने पर कुछ घटित होता ही न था।

उदाहरण के लिए...उस दिन की बात ही ली जा सकती है।

यह पहले बैसाख की बड़ी अनमनी-सी शाम थी। अशोक तभी हड़बडाता-सा आया और उसने अलका की माँ से पूछा, ''अलका कहीं गयी है, मौसी? कल ही बेचारी ने मर-खपकर किताबों की एक लिस्ट मुझे दी थी और मैंने...क्या बताऊँ मौसी...धोबी के यहाँ कमीज डलवा दी और उसके साथ ही...। बेचारी इस बात को सुनेगी तो खूब हाथ-पाँव पटकेगी।...वह गयी कहां?''

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