कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
एक दिन... कभी तो
उनके बीच का प्यार ऐसा कोई खास प्यार न था कि...दोनों ही परिवार के बीच दोस्ती के ताने-बाने पारिवारिक रिश्तों की तरह ही थे। दो घरों के बच्चों के बीच बचपन से ही आपसी प्यार का जो सहज सम्बन्ध बन जाता है...उतना ही।
इससे न ज्यादा...न कम।
इस घर के बच्चे उस घर में पतंग उड़ाते या फिर उस घर के बच्चे इन लोगों के घर आकर सहन में कंचे खेलते...इसमें किसी को न तो कोई हैरानी ही होती और न ही कोई शिकायत। और इसी तरह कोई इस बात को अन्यथा न लेता था कि इस घर की अलका ने उस घर के अशोक को एक जोड़ा रूमाल सिलकर दे दिया या कि उस घर के अशोक ने इस घर की अलका को उपहार में कोई चीज दे दी।
बस इतना ही। जैसा सुयोग और अवसर मिला वैसा और उतना ही सम्पर्क और निबाह।
उपहार में मिली पुस्तकों से कहीं भूख मिट सकती है भला!
यह अशोक का ही दायित्व था कि जैसे भी हो....अलका के लिए किताबें जुटा देना। लेकिन उस किताब की कीड़ी के लिए येन-केन-प्रकारेण...चाहे जितनी किताबें लायी जाएँ...कम पड़ती थी।
''तेरी खातिर तो मुझे दो-चार पुस्तकालयों का सदस्य बनना पड़ेगा,'' अशोक ने चुटकी लेते हुए कहा, ''सिर्फ दो पुस्तकालयों की किताबों से इस कुम्भकरणा की भूख मिटाना मुश्किल है।''
अलका तन गयी, "कुम्भकरणा...टरणा...जो मन में आए, मत कहना अशोक दा....वरना इस जनम में कभी तुम्हारे घर कदम नहीं रखूँगी।''
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