कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
...घर
के दरवाजे से सिटकिनी लगाकर सोडा की दो टिकिया और पानी का गिलास पति के
हाथ में पकड़ाने के बाद अनुपमा पान का डिब्बा हाथ में लेकर बिछौने पर बैठ
गयी। पान लगाने के ढेर सारे सामानों से भरे डिब्बे को खोलकर पान बनाया और
बीड़ा मुँह में डाला और कहा-''छाती की तकलीफ कोई ज्यादा तो नहीं? तुम तो
वक्त से जरा इधर-उधर होते ही बिगड़ जाते हो। सुन रहे हो न...? नाराज हो?
तुम्हें लेकर तो अब भारी मुश्किल है। अभी भी बच्चों की तरह नाराज होना,
रूठ जाना अच्छा लगता है? बेटा भी वैसा ही हुआ है। बाप की और कोई खूबी हो न
हो, गुस्सा तो वही सोलहों आने है। उस समय मैंने तुमसे कहा नहीं था कि
मुन्ना की तबीयत खराब है। तबीयत नहीं बिगड़ी, तेवर बिगड़ा है। दोस्त जा रहे
हैं न, इसीलिए दिमाग खराब है तनाराज होकर मैंने भी जाने को कह दिया है।-मन
की चाह दवा रखने से तो आखिर में बीमार हो ही जाएगा। सुधीर, श्यामल सभी जा
रहे हैं, तो वह भी चला जाए एक बार। दिल्ली जाने से क्या कोई सींग निकल
आएँगे, भला मैं भी देखूँ।...हां, अगर एक नौकरी का जुगाड़ बैठा सके तब
कहूँगा कि लायक और बुद्धिमान है। श्यामल के मामा शायद वहीं कोई बड़े अफसर
हैं। अरे हां...तुम लोगों के सुबोध वाबू की बदली दिल्ली हो गयी है न?''
''हो
भी गयी तो क्या?'' तारकनाथ के स्वर में खीज थी तो भी हँसते हुए
कहा-''तुम्हारे लड़के के वहाँ पहुँचते ही एक कुर्सी आगे बढ़ा देगा?''
''जाओ
भी!'' हँसने लगी अनुपमा। वही दस साल पहले वाली हँसी। हँसकर तकिये का सहारा
लेती हुई बोली-''तुम्हें तो हमेशा मजाक ही सूझती है। हटो भी जरा आराम से
सोऊँ।...लो, सोचा था मसहरी लगा दूँगी...चलो हटो...लगा दूँ।''
''अब
छोड़ो भी,'' तकिये पर कोहनी रखे अनुपमा का सिर हाथ से सहलाते हुए तारकनाथ
बोले, ''जाने भी दो...अब तो पड़ गया। लेकिन आज अचानक अपने फर्ज का खयाल
कैसें हो गया?''
''नहीं,
तुम्हारी तबीयत आज ठीक नहीं है,'' यह कहती हुई अनुपमा उठकर बैठ गयी। तब तक
तारकनाथ खड़े हो चुके थे। मूँछों के बीच से मुस्कराते हुए बोले, ''अच्छा,
बड़ी पति-भक्ति जतायी जा रही है! इन सत्ताईस वर्षों में कितने दिन मसहरी
लगायी गयी है!''
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